रश्मि वैभव गर्ग

सुरेश जी के  दोनों बेटों में झगड़ा चल रहा था। दोनों ने अंतत: निश्चय किया कि एक-एक महीने दोनों अपने मां-बाप को रखेंगे। दोनों ही अपने मां-बाप को साथ नहीं रखना चाहते थे। सुरेश जी को रिटायर हुए छह महीने हो चुके थे, लेकिन अभी तक उनकी कंपनी में पेंशन का फैसला नहीं हो पाया था।

सुरेश जी की पत्नी कहने लगी क्यों न हम दोनों अलग ही रह लें, लेकिन सुरेश जी  ने कहा कि हम अपना खर्च कैसे चलाएंगे। हम दोनों की दवाई कैसे आएगी।

सुरेश जी और उनकी पत्नी को मजबूरीवश बेटों के फैसले को आत्मसात करना पड़ा। वे एक-एक महीने दोनों बेटों के यहां रहने लग गए। दोनों बेटे जैसे महीना पूरा होने का ही इंतजार करते थे। एक साल इसी क्रम में गुजर गया। एक महीने बड़े बेटे के पास एक महीने छोटे बेटे के पास।

एक दिन सुरेश के मित्र का फोन आया, उन्होंने बताया कि अपनी कंपनी पेंशन का केस जीत गई है और अब हम सबको पेंशन मिलेगी… खुशी से नाचते हुए सुरेश जी ने पूरे परिवार को बताया और सभी को रेस्टोरेंट में दावत देने की बात कही। उस समय सुरेश जी छोटे बेटे के पास थे, दो दिन बाद ही महीना पूरा होने वाला था हमेशा की भांति सुरेश जी अपना सामान बांधने लग गए तो छोटा बेटा बोला, अरे पापा अब आप यहीं रहो…आपके बिना हमें अच्छा नहीं लगता। वैसे भी आपसे तो घर की रौनक रहती है।

सुरेश जी मुस्कुराने लगे … इतने में बड़े बेटे का फोन आ गया, पापा मैं आप दोनों को लेने आ जाता हूं, अब आप यहीं रहना। मेरे दोनों बच्चे बड़े हो गए हैं उन्हें आपसे कहानी सुनना बहुत अच्छा लगता है। आपके बिना बच्चों का मन नहीं लगता है। मूक खड़ी सुरेश जी की पत्नी पेंशन की महिमा को बखूबी समझ रही थीं, साथ ही अपने संस्कारों पर लज्जित भी हो रही थीं।

(कोटा निवासी लेखिका रश्मि कहानीकार हैं।) 

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