-डॉ. परमजीत ओबराय

तुम पथिक बन चले गए,
मैं खड़ी इंतजार करती रही।
तुम पाषाण बन स्थिर रहे,
मैं नदी बन चलती रही।

तुम झील से ठहरे रहे,
मैं अनिल बन बहती रही।
तुम रवि से तीक्ष्ण रहे
मैं चांदनी बन फैली रही।

तुम पुरुष थे डटे रहे,
मैं स्त्री बन निभाती रही।
तुम तूफान बन ध्वस्त करते रहे,
मैं धरती बन संवरती रही।

तुम पुरुष बन जीते रहे,
मैं स्त्री बन मर-मर कर जीती रही

(डॉ. परमजीत ओमान में हिंदी की शिक्षिका हैं।)

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