– रागिनी श्रीवास्तव

यह मार्च के अंतिम दिन की नीरव दोपहर है। रंगपंचमी अपने रंगों को समेट कर जा चुकी है।

मन में एक अजीब तरह की रिक्तता शून्यता सी आ जाती है। सूखे पत्तों का गिरते जाना भी एक अनचीह्ना सा अवसाद दे जाता है। नए पत्ते आ चुके हैं या आ रहे हैं, मगर पुराने को विदा करना आसान कब रहा है। हवा का रुख धीरे धीरे गर्म हो रहा है और वातावरण में निर्जनता का आभास होने लगा है।

गेहूं की फसल लगभग तैयार खड़ी है। सरसो अपनी पीली आभा के साथ फूल कर पक चुकी है। रंग-बिरंगे और लाल फूलों ने आसमान को सुर्ख कर रखा है। जिन फूलों को शीत ने डरा रखा था वे भी अब बेखौफ अपनी छटा बिखेर रहे हैं। सुबह-सुबह मोगरे की भीनी खुशबू भाती है।

सोचती हूं गरीबों का मन और मौसम तो रोटी की जुगाड़ में सदा एक सा ही रहता होगा उनके जीवन में।  ये वसंत, पतझड़ और फाग क्या असर करते होंगे। ये उनकी बेबसी और लाचारी में छुप ही जाते होंगे। बोर्ड की परीक्षाएं लगभग समाप्त हो चुकी हैं। नए विद्यालय सत्र की शुरुआत हो गई है। बच्चों का उत्साह सर्वत्र है।

…और अप्रैल की पहली तारीख मूर्ख दिवस के रूप में हम मूर्ख बनना नहीं बनाना चाहते रहे। मजाक में ही कभी-कभी मूर्ख बन जाना कितना बुरा लगता है न। तब लगता है कि जो मनुष्य थोड़ी कम समझ के हैं या जिन्हें कुछ समझने में थोड़ा वक्त लगता है उन्हें कैसा लगता होगा जब हमारी एक उपहासात्मक हंसी उनका पीछा करती है।

दरअसल, हमारी ये हंसी एक अघोषित यातना और एक सामाजिक तिरस्कार भी है उस व्यक्ति और उस परिवार का भी। बहरहाल, जीवन दिन हफ्ते महीने व मौसमों के अनुसार अपनी गति से चला जा रहा है। दूर कहीं आसमान में उग्र होता सूरज आने वाले दिनों की तपिश की सूचना भर दे रहा है।

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