-अतुल मिश्र

नई दिल्ली। एकात्मान्वेषी पुराविद् पं. सुरेंद्र मोहन मिश्र ने 1955 में स्वयं संग्रहित मिट्टी-पत्थर की प्राचीन मूर्तियों, सिक्कों, बर्तनों, मनकों और अन्य पुरावशेषों के अलावा प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों को एक बड़े भवन में प्रदर्शित कर अपनी जन्मभूमि चंदौसी (उत्तर प्रदेश) में एक संग्रहालय की स्थापना की थी। साल 2008 में उनके देहावसान के बाद इस संग्रहालय को दिसंबर 2022 में अब उन्हीं की जन्मस्थली पर नवीन रूप देकर पुनर्स्थापित कर दिया गया है। प्रिंट और सोशल मीडिया के माध्यम से आज यह संग्रहालय देश-विदेश के पुरातत्वविदों और इतिहास-प्रेमियों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

22 मई 1932 को चंदौसी के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में जन्मे सुरेंद्र मोहन मिश्र प्रख्यात कवि और लेखक तो थे ही, एक ऐसे पुरातत्ववेत्ता भी थे,  जिन्होंने अपने सीमित संसाधनों से एक बड़ी क्षेत्रीय सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित कर देश को समर्पित कर दिया। ‘कविकुल गुरु’ कहे जाने वाले पं. सुरेंद्र मोहन मिश्र के बारे में प्रख्यात कवि बालकवि बैरागी ने उनके इसी भाव को उद्धृत करते हुए एक विशाल जनसमूह के सामने मंच से कभी कहा था कि- ‘मैं या मेरे मालवा का कोई भी कवि जब चंदौसी-स्टेशन से गुजरता है, तो वह यहां उतर कर यहां की मिट्टी को अपने माथे से जरूर लगाता है। जानते हैं क्यों? क्योंकि यह उस ‘सुरेंद्र’ की धरती है, जिसने खुद जल कर सैकड़ों दियों को रोशनी दी है।’

ज्ञातव्य है कि प्रख्यात कवियों में डॉ. कुंअर बेचैन, हुल्लड़ मुरादाबादी और डॉ. उर्मिलेश शंखधार जैसे अनेक ख्यातिप्राप्त कवि उनके काव्य-शिष्य थे।  

देशभर में कवि-सम्मेलनों की अपनी काव्य-यात्रा के दौरान ही श्री मिश्र की पुरातत्व-यात्राएं भी चलती रहीं, जिससे उनका पुरान्वेषण का शौक उनका जुनून बन गया और यही वजह रही कि उन्होंने इतना बड़ा संग्रह कर लिया, जो अब निजी तौर पर देश का सबसे बड़ा संग्रह कहा जाने लगा है। प्रसिद्ध कवि डॉ. हरिवंश राय बच्चन तत्कालीन राष्ट्रीय समाचार पत्रों में श्री मिश्र की प्राचीन खोजों से संबंधित समाचार पढ़ कर उनका संग्रहालय देखने चंदौसी आए थे। वे पुरातत्व के प्रति श्री मिश्र की निष्काम लगन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने दिल्ली पहुंचकर अपने पुत्र और उस समय सांसद रहे अमिताभ बच्चन से एक पत्र भी शिक्षा मंत्री केसी पंत के नाम इस आशय का लिखवाया, जिसमें उन्होंने लिखा है कि यह देश का सबसे बड़ा व्यक्तिगत संग्रह है। ऐसा कोई संग्रह इस देश में नहीं है।

श्री मिश्र और उनके संग्रहालय के प्रशंसकों में डा. वासुदेव शरण अग्रवाल, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, सत्यकेतु विद्यालंकार,  कृष्णदत्त वाजपेयी, डा. सतीश चन्द्र काला, कैप्टन शूरवीर सिंह, महानिदेशक (पुरातत्व सर्वेक्षण) देशपांडे,  एमसी जोशी, पं. रमेश चंद्र शर्मा, डा. डब्लू. एच सिद्दीकी के अलावा अनेक प्रख्यात पुराविद् शामिल हैं। अब जबकि श्री मिश्र नहीं हैं, उनके इस दुर्लभ संग्रह को उन्हीं के पैतृक आवास के नीचे के हिस्से में प्रदर्शित कर दिया गया है। यहां नौ शोकेस में ईसा पूर्व दो हजार से लेकर मध्यकाल के बाद तक के विभिन्न पुरावशेषों को प्रदर्शित किया गया है।

संग्रहालय में प्रवेश करते ही पहले शोकेस में दो हजार ईसा पूर्व के ताम्रयुगीन भाले के फलक, विभिन्न कुल्हाड़ियां, बड़ी छैनियां, कड़े और विभिन्न प्रकार की अंजन शलाकाएं आदि प्रदर्शित हैं। इन्हीं के साथ मिट्टी के वे खिलौने और मूर्तियां भी इस शोकेस के विषयों को रोचक बनाती हैं, जो इस क्षेत्र में ताम्रयुगीन सभ्यता के समानांतर चल रही हड़प्पा सभ्यता से संबंधित हैं। इनमें विशेष रूप से ताम्रयुगीन पुरास्थलों से प्राप्त उन पशुओं की मृण्मूर्तियों को प्रदर्शित किया गया है, जिनकी आंखें गोल चिपकवां शैली में निर्मित की गई हैं और जो हड़प्पा से प्राप्त पशु-मूर्तियों से पूर्णतया साम्यता रखती हैं। इसके अतिरिक्त बच्चों के खेलने की बैलगाड़ियों के हड़प्पाकालीन पहिए भी प्राचीन मनकों के साथ इसी शोकेस में प्रदर्शित हैं।

दूसरे शोकेस में गुप्तकाल और कुषाणकाल के पुरावशेषों का प्रदर्शन किया गया है। यहां पर भगवान शिव, गणपति, महिषासुर मर्दिनी, बुद्ध, बोधिसत्व, खिड़की से झांकती नारी, हाथी, शेर आदि विषयों के साथ ही ईसा पूर्व से लेकर गुप्तकाल तक के आभूषण अंगूठी, बिछुए, चूड़ियां आदि प्रदर्शित हैं। साथ में शतरंज खेलने के मोहरे और चौपड़ खेलने के पासे भी शोधकर्ताओं के अध्ययन करने के लिए प्रदर्शित हैं। गुप्तकाल की एक विशाल कमलांकित ईंट भी यहां है, जो दर्शकों को दूर से ही आकर्षित करती है। यहां उड़ते हुए शेर और सूर्यदेव का अंकन भी दो मृण्फलकों पर दिखाई देता है।

इसी के बराबर तीसरे शोकेस में विभिन्न प्रकार की कुषाण और गुप्त कालीन मृण्मूर्तियों के नारी-पुरुष के शीर्षों के साथ ही एकमुखी शिवलिंग भी प्रदर्शित किया गया है। मिट्टी की प्राचीन अभिलिखित मुहरें और प्राचीन ब्राह्मी लिपि युक्त सिक्के भी इस शोकेस को विशेष रूप से दर्शनीय बनाते हैं। चौथे शोकेस में मिट्टी-पत्थर की विभिन्न मूर्तियां लगी हैं, जिनमें कलशधारी  गंगा-यमुना, गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठाए कृष्ण, गणपति, शंखधारी विष्णु और जैन तीर्थंकरों की प्रस्तर प्रतिमाओं के अंश प्रदर्शित हैं। नीचे आश्चर्यजनक रूप से लघुलिपि में लिखे संस्कृत के लघु ग्रंथ दर्शकों के आकर्षण का विशेष केंद्र बने रहते हैं। इन ग्रंथों को इतनी बारीक कलम से सुलेखित किया गया है कि बिना आतिशी शीशे के इन्हें पढ़ पाना मुश्किल है, तो इनको लिखना कितना मुश्किल रहा होगा, यह अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

पांचवें शोकेस में प्रागैतिहासकाल, मौर्यकाल और शुंगकाल की मृण्मूर्तियों का दर्शनीय प्रदर्शन है। इनमें मातृदेवियां, मिट्टी की गाड़ी के शुंगकालीन अलंकृत पहिए, विभिन्न पशु, विभिन्न डिजाइनों के कपड़े के छापे, युद्ध में गोफन द्वारा प्रयुक्त होने वाले मिट्टी के गोले, सौर ऊर्जा के चिह्नों से युक्त मिट्टी के गोल बटखरे या सिक्के अध्ययन के लिए आकर्षित करते हैं। छठा शोकेस उत्तर गुप्तकालीन मृण्मूर्तियों से सुसज्जित है। इनमें विषय वैभिन्न इतना है कि इसे सिर्फ देख कर ही समझा जा सकता है। विशेष रूप से भगवान बुद्ध के शीर्ष इसमें बड़ी संख्या में हैं। यहीं पर प्राचीन काल के बर्तनों को भी प्रदर्शन के लिए रखा गया है।

सातवें और आठवें शोकेस को देख कर इस संग्रहालय के वैभव को आसानी से समझा जा सकता है। इनमें गुप्त, कुषाण और मध्य काल की बड़ी मिट्टी और प्रस्तर की प्रतिमाओं का प्रदर्शन है, जिनके विषय विशेष रूप से बहुत रोचक तथ्य प्रस्तुत करते हैं। इनके पटल पर मुगल और ब्रिटिश काल के महत्वपूर्ण मैडलों, लघु मूर्तियों, अंगूठियों, बटनों और पैंडेंट्स को प्रदर्शित किया गया है। नौवें शोकेस में चांदी के मुगल राशि-यंत्र, पुरानी तलवारों और तीरों आदि का आकर्षण भी इस संग्रहालय को महत्वपूर्ण बनाता है।

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