-अंजू खरबंदा
‘सुरिन्दर…! अरे भई एक कप चाय पिला दो बढ़िया-सी!’
आफिस पहुंचते ही मैं आवाज लगाती।
उस समय ग्रेटर कैलाश में मेरा आफिस था जो मेरे घर से आफिस करीब 30 किलोमीटर दूर था। सुबह जल्दी निकलती घर से। घर के सारे काम समेटते-समेटते अपने लिए एक कप चाय पीने का समय भी न मिलता। अपने हिस्से का नाश्ता हाथ में पकड़े ही बस स्टॉप की ओर भागती कि कहीं चार्टेड बस मिस न हो जाए।
ये तब की बात है जब मेट्रो नहीं हुआ करती थी। करीबन सवा-डेढ़ घंटा लग जाता आफिस पहुंचने में।
और जाते ही तलब लगती एक कप गर्मागर्म चाय की। ‘सुरिन्दर …!’ अपने केबिन में बैग रखते ही मैं आवाज लगाती।
और मुस्कुराता हुआ हाजिर हो जाता वह।
एक दिन उसे आवाज लगाई पर कोई उत्तर न पा रिसेप्शन पर फोन किया
‘भारती, प्लीज पेन्ट्री में बोल दो, एक कप चाय के लिए।’
कुछ ही देर में सुरिन्दर चाय लेकर मेरे केबिन में आया। आज उसके चेहरे से मुस्कुराहट गायब थी।
‘अरे क्या हुआ तुम्हें! सब ठीक तो है न!’ मुझे उसका उदास चेहरा देख चिंता हुई तो पूछ लिया।
‘आज आपने मुझे आवाज नहीं दी चाय के लिए।’
‘दी थी! तुमने सुना नहीं तो भारती को कहा!’
‘आप मुझे खुद ही आवाज लगाया कीजिए!’
‘क्यों ?’ मुझे उसकी बात पर बेहद हैरानी हुई तो पूछ बैठी ।
‘वो आप मुझे सुरेन्द्र की जगह अपने पंजाबी स्टाइल में सुरिन्दर…आवाज लगाती हो न…!’
एक पल को तो कुछ समझ न आया। समझ आया तो खूब हंसी। मैंने तो इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया था।
अपनी गलती का अहसास भी हुआ कि सिर्फ मैं ही पूरे आॅफिस में उसे सुरिन्दर कह कर आवाज लगाया करती थी बाकी लोग तो सुरेन्द्र ही कहा करते।
पर मुझे नहीं पता था कि मेरी ये पंजाबी टोन उसे इतनी भाती है।
अब मैंने कई बार उसे सुरेन्द्र पुकारने की कोशिश की पर वह अनमना-सा हो जाता, तो फिर मैं उसे उसी नाम से ही आवाज लगाती
‘सुरिन्दर…! अरे भई चाय तो पिला दो एक कप।’
और वो पल भर में मुस्कुराता हुआ किसी जिन्न की तरह हाजिर।
(दिल्ली निवासी अंजू खरबंदा लेखिका और कहानीकार हैं)