-अतुल मिश्र
रामभरोसे के घर डकैती पड़ी थी और पुलिस ठीक उसके बाद ही पहुंची, जब डकैत बाकायदा डकैती का माल लेकर थाने पहुंचे कि काम हो गया। अब केवल पुलिस का काम रह गया था कि वह मौका-ए-वारदात पर पहुंचे और जहन्नुम से भी डकैतों को पकड़ लाने की सही और अच्छी लगने वाली तसल्लियां दें। रामभरोसे किसी सूबाई पार्टी के अध्यक्ष की तरह अपने विधायकों के दूसरे दल में चले जाने वाली पोजीशन में लुटे-पिटे बैठे थे।
दरोगा थाने से ही कुछ सवालात सोचकर चला था और जिन्हें अब पूछना बाकी था। अखब़ार वालों को डकैतों के अलावा पुलिस से भी सूचना मिल चुकी थी कि अंदाजन कितने की डकैती पड़ी है? हिंदी और संस्कृत जैसे गैर ट्यूशनी विषय के अध्यापक के घर डकैती पड़ने की खबर फैल चुकी थी और जिस वजह से गणित और रसायन शास्त्र जैसे नासमझ विषयों के मास्टरों ने यह समझ लिया कि हो ना हो अब उनकी बारी है, इसलिए वे अपने घरों के दरवाजे मजबूत कराने में लग गए।
कस्बे के किसी मास्टर के घर डकैती पड़ने की सूचना उन लोगों को ज्यादा परेशान कर रही थी, जो वाकई पैसे वाले थे और डकैती पड़े जाने के असली हकदार था। उन्हें लग रहा था कि जैसे उनकी मूंछों पर रामभरोसे नामक किसी मास्टर ने हमला कर दिया हो।
डकैतों का स्तर भी कितना गिर गया है? यही घर मिला था डकैती के लिए? डकैती के हकदार लोग अपने हक छीने जाने का विरोध कुछ इस अंदाज में दर्ज कराते दिख रहे थे।
डकैतियां तो पहले पड़ा करती थीं। अब ये कोई डकैतियां थोड़े ही हैं कि हिंदी के अध्यापक के यहां डकैती डालकर हफ्ते भर का राशन-पानी ले गए। कस्बे में साहूकारिता कर रहे किसी ऐसे आदमी की टिप्पणी होती है, जो अपने साथ रकम वसूली के लिए दो-चार गुंडे किस्म के शरीफ लोग भी रखता था।
हमारे बाबा बताया करै है कि कलुआ डकैत, जिसके नाम से सुल्ताना डाकू भी घबराया करै था, एक बार हमारे घर आया डकैती डालने, तो परेशान हो गया कि साहू साब, अब यह बताओ कि क्या-क्या ले जाऊं और क्या-क्या छोड़ जाऊं?… तो हमारे बाबा ने कही कि सुन बे, अगर असली डाकू है, तो सारा माल ले जइयो, वरना फिर कभी अपनी शकल मत दिखइयो। बस, कलुआ पैरों में गिर गया कि सारी जिंदगी भी ले जाता रहा, तो भी सारा तो कभी ना ले जा पाऊंगा। माफ करो, साहू साब, अब आगे से हम ना आने वाले तुम्हारे घर।
वो दिन था और यह दिन है, कोई माई का लाल डकैत हमारे घर के बराबर से भी नहीं निकला। किसी जमाने में साहूगिरी के आनंद ले रहे शख्स द्वारा किसी पान की दुकान पर खड़े होकर इस ऐतिहासिक घटना का प्रसारण बीबीसी से भी तेज पहुंचने की गरज से किया जाता है, ताकि सनद रहे और अब उन्हें साहू साब के नाम से सलाम न करने वाले लोगों द्वारा सलाम करवाने के काम आए।
कितने आदमी थे? दरोगा ने रामभरोसे को कुछ इस अंदाज में घूरते हुए पूछा कि अगर सही संख्या, जो कि उनके थाने में पहले से ही दर्ज है या मौजूद है, अगर नहीं बताई, तो किसी भी वक़्त उनकी सुताई हो सकती है।
छह लोग थे, साब! रामभरोसे ने डरते-डरते बताया।
सोच लो, अगर चार निकले, तो अंजाम बहुत बुरा होगा। दरोगा ने अपना वह वाला बेंत, जिससे वे उनके हेड मास्टर को किसी घिनौने कृत्य के सिलसिले में पीट चुके थे, हवा में कुछ इस प्रकार घुमाया, जैसे वह कभी भी उनके वश से बाहर होकर उनके शरीर के किसी भी अंग को भंग कर सकता है।
नहीं जी, छह ही थे। गांधी जी के सत्य बोलने के उपदेश को मन ही मन ध्यान में रखते हुए रामभरोसे ने सत्य का सहारा लिया।
चलो, जीप में बैठो और थाने चल कर रिपोर्ट लिखाओ कि छह लोग ही थे और डकैती डाल कर चले गए। सत्य की थाने पहुंचकर क्या हालत होती है, यह बिना समझाए थानेदार ने उनको थाने निमंत्रित किया।
आप यहीं लिख लो रिपोर्ट। मैं थाने नहीं जाने वाला। थानेदार के बारे में सत्य को असत्य सिद्ध करने वाली अनेक दंतकथाएं सुनने के बाद रामभरोसे ने अपना आखिरी निर्णय भी सुना दिया।
थाना तो यहां नहीं आने वाला तुम्हारे लिए चल कर। थानेदार ने उनकी बीवी पर एक सरसरी नजर डालते हुए इतना कहा और अपनी जीप लेकर थाने की तरफ निकल लिया।
घर के एक कोने में दुबके पड़े कानून और व्यवस्था आपस में मिलकर बहुत देर तक यूं ही रोते रहे।