-अतुल मिश्र
चुनावी पहचान पत्र बनाने वाले सरकारी लोगों से लाख कहने पर भी कि वे जिस शख्स की तलाश में हैं, वो बीस साल पहले कब्र में जा चुका है, वे इसे मानने को हरगिज तैयार नहीं थे। उनका तर्क था कि जो आदमी पिछले दो-तीन चुनावों में अपना वोट डाल चुका है, वह इस बार क्यों नहीं डालेगा?
‘डेथ सार्टिफिकेट देख लीजिए, वो हमारे बाबा थे और बीस साल पहले गुजर चुके हैं।’ फर्ज निभाऊ पोतों ने अपने बाबा का नया पहचान-पत्र हासिल करने के बाद स्पष्ट भी किया।
‘नियम-कानून कुछ होता है कि नहीं?’ पहचान पत्र निर्माताओं ने पूछा।
‘ठीक है। उनकी कब्र खोद कर उन्हीं से पूछ लेते हैं कि इस बार वे खुद वोट डालने जाएंगे या उनके नाम पर जो लोग पहले से वोट डालते रहे हैं, वही लोग इस बार भी वोट डालेंगे।’ कब्र में दफन वोटर के पोतों ने चुनाव आचार संहिता का अचार निर्मित करते हुए सवाल किया।
‘आपका घर अकेला नहीं है। शहर के बहुत से लोगों ने अपने बाप-दादाओं को कब्रिस्तान पहुंचा हुआ कहा है, मगर हम कैसे मान लें, जब तक हमारे कागज नहीं बोलते।’ पहचानपत्र निर्माताओं ने ‘कागजाय किम प्रमाणं यानी कागजों के लिए किन प्रमाणों की जरूरत है, जैसी संस्कृत-सूक्ति के तहत अपनी बात जारी रखी।
‘यानी दादाजान को कब्र से निकाल कर लाएं?’ बमुश्किल कब्र तक पहुंचाने के बाद चुनावी वोट डलवाने के लिए दादा को खोद कर पुन: निकालने की कल्पना से घबराते पोतों ने पूछा।
‘लोकतंत्र में ऐसा जरूरी है।’ लोकतंत्र में अपनी पूर्ण आस्था जताते हुए पहचानपत्र निर्माताओं ने पोतों को अपना फर्ज याद दिलाया।
‘लेकिन इस फोटो में वे जैसे दिख रहे हैं, यकीनन अब वे वैसे नहीं लग रहे होंगे।’ पोतों ने फिर तर्क दिया।
‘शक्ल न मिले, तो बता दीजिएगा कि सऊदी अरब से प्लास्टिक सर्जरी करवा कर आए हैं।’ पहचानपत्र निर्माताओं ने आगे बढ़ते हुए अपनी मौलिक राय दी।
लोकतंत्र घंटों तक अपने अस्तित्व को लेकर अफसोस जाहिर करता रहा और कब्रिस्तान के मतदाता अपनी तैयारियों में लग गए।