-अतुल मिश्र
वो एक ऐसा जासूस था, जो देखने में तो फ्रेंच कट दाढ़ी वाला पत्रकार लगता था, मगर उसके सारे काम ऐसे होते थे, जो उसे एक काबिल जासूस साबित करते थे। दिल्ली की कई प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में अपने जौहर दिखाने वाले इस पत्रकार को अक्सर ‘खोज खबर’ और ‘खास खबर’ जैसे समाचार लिखने को दिए जाते थे। इन समाचारों को वह पूरी गोपनीय छानबीन के बाद ही तैयार करता था। उसकी इस रिपोर्ट के विश्वसनीय और गैर विश्वसनीय सूत्र कौन होते थे, यह उन सूत्रों को भी पता नहीं होता था। यह सिर्फ और सिर्फ उस जासूसनुमा पत्रकार को ही पता होता था कि कहां से यह पक्की सूचना उस तक पहुंची या पहुंचाई गई है।
चाहे इंदिरा गांधी-हत्याकांड में किसी तीसरे की ‘एंट्री’ की बात हो, दिल्ली के दंगों की बात हो या ब्लड बैंकों का काला सच जैसी स्टोरी की बात हो, उसके सहयोगी हरदम उसका साथ देते थे। ऐसा कभी नहीं होता था कि वे सहयोग की भावना से इनकार कर दें कि हम तो नहीं करते या हमें मिलता ही क्या है? खोजी पत्रकारिता के दंश झेल रहा वह पत्रकार जानता था कि खतरनाक परिस्थितियों में किस तरह का व्यवहार सही रहता है और कैसे अपनी स्टोरी लपेट कर इनसे बाहर निकलना है।
ऐसी परिस्थितियों में चाहें कितने ही बड़े बैनर के हों, ये प्रेस कार्ड भी काम नहीं करते। अखबार के मालिक तो सिर्फ आपकी पीठ थपथपा कर आपको अच्छी लगने वाली प्रेरणास्पद बात भी कह देंगे, मगर किसी मुसीबत में वो यह कह देंगे कि वहां जाकर इनसे पंगा लेने की जरूरत ही क्या थी।
चौरासी के दंगों में इस जासूसनुमा पत्रकार को पश्चिमी दिल्ली की कवरेज की ऐसी जिम्मेदारी दे दी गई, जो खतरों से खेलने जैसी थी। मादीपुर, पंजाबी बाग और पश्चिम विहार तब सबसे ज्यादा संवेदनशील बने हुए थे। घटनाओं को वह अपने कैमरे से उस माहौल को कैद करने की कोशिशों में लगा था। छायाकार भी साथ छोड़ कर चला गया था।
जासूसी में दिलचस्पी रखने वाले इस पत्रकार को ऊपर वाले ने मौके भी इतने दिए कि वह अब उनकी स्मृतियों में ही जीवन गुजार रहा है। ‘न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर’ की तर्ज पर अपनी बाकी जिÞन्दगी जीने में लगा है। कभी वो भवाली और कभी नैनीताल में दिखाई देता है। उसका पूरा चेहरा भी कम ही लोगों ने देखा है। कैप वाले ओवरकोट में रहने वाले उस जासूस पत्रकार के सैकड़ों किस्से हैं, जो आगे भी सुनने को मिल सकते हैं।
(लेखक प्रसिद्ध पत्रिका के राजनीतिक संवाददाता रहे हैं। इन दिनों स्वतंत्र लेखन।)