अनुभूति गुप्ता
बाबू जी : तुम कुछ खामोश हो तनिक सी? क्या बात है बिटिया काम में मन नाही लागत है।
मैं : बाबू जी मैं क्या चिंतनशील हो गई हूं, हर वक्त दिमाग का एक कोना अंधकार में डूबा हुआ है वहां मैं यातनाएं, बेबसी और संवेदनाएं देखती रहती। क्या मैं दार्शनिक होने के प्रथम चरण पर हूं या पागल हो रही।
बाबू जी : बिटिया, तनिक ठहर..एक घूंट पानी पी लूं… पानी अपने हलक से उतार कर। देख बिटिया, सिर्फ अपना सोचती तो यह अंधकार न होता…संसार भर का सोच रही। इसलिए हर कोने में छुपी यातना तुम्हारे दिमाग के भाग से चिपक रही।
मैं : बाबू जी क्या उपाय है इसका? मैं कैसे शांत करूं उस तम को। क्या मैं पहले जैसी नहीं हो पाऊंगी।
बाबू जी मंद-मंद मुस्कुराए और बोले, तू बावली है मेरी गुड़िया। संवेदनशील होना अच्छा पहलू है यह मानवता को जिंदा रखता है।
अपनी नम उंगलियों का सहारा देते हुए बाबू जी ने मेरे अंतर्मन को शांत किया। एक भावुकता भरा हाथ जब आपके सर पर कोई अपना रखता है तो सारे धूमिल प्रश्न भी उज्ज्वल होते हैं। मैं आज भी उसी कोठरी में बंद हूं लेकिन उज्ज्वल होने का प्रयास जारी है।
रेखाचित्र : अनुभूति