नई दिल्ली। कहानियां जिंदगी से निकलती हैं। उनमें कई रंग होते हैं। इन सभी रंगों की अपनी अभिव्यक्ति होती है। इसी से मुकम्मल बनती है जिंदगी। कहानीकार इसी जिंदगी से कहानियां रचते हैं। ये जिंदगी की प्रतिबिंब हो जाती हैं।

आवारा मसीहा के रचयिता विष्णु प्रभाकर कहा करते थे कि कहानियों के पात्र भी हमारे आसपास ही होते हैं। यह सच है। कहानीकार रश्मि वैभव गर्ग के कहानी संग्रह ‘प्रतिबिंब’ को पढ़ते हुए समाज को आईने की तरह देख सकते हैं। कहानीकार का कहना है कि यह पुस्तक उनके आसपास के लोगों का ही प्रतिबिंब है। उनका कहना है कि कहानियों के जो पात्र हैं, वो हमारे इर्द-गिर्द ही हैं। हर शख्स अपने अंदर कुछ समेटे हुए हैं। ऐसे ही रंगों से बनी कहानियों का कैनवास है यह। जीवन के विविध रंगों का प्रतीक है यह।

रश्मि वैभव गर्ग के कहानी संग्रह ‘प्रतिबिंब’ की शुरुआत ‘केशवी’ शीर्षक से रची लंबी कहानी से हुई है। यह एक ऐसी युवती की कहानी है जिससे हर युवा स्त्री इससे नाता जोड़ सकती है। मध्यवर्गीय परिवार की किशोरी केशवी में आप हर परिवार की उस लाडली को देख सकते हैं जो अपने संस्कार से नहीं भटकती। वह माता-पिता की पसंद के लड़के से शादी कर लेती है।

केशवी को जब ससुराल में उसे उपेक्षा मिलती है तो उसकी सारी उम्मीदें पति पर होती हैं जो उसे मन से नहीं, तन से प्यार करता है। लगातार घोर उपेक्षा के बाद एक दिन वह टूट जाती है और अंतत: तलाक लेने का फैसला करती है। यह कहानी उन स्त्रियों को संदेश है कि मुश्किलें कितनी भी आए जीवन में प्रेम दस्तक जरूर देता है। केशवी को अंत में उसका खोया प्यार मिल जाता है।

समाज आज भी कुरीतियों के कारण मानसिक रूप से विकलांग है। कहानीकार ने विवाह समारोह में विधवा ननद के तिरस्कार को सामने रख कर यह कहने की कोशिश की है कि मानसिक विकलांग आश्रम में समाज सेवा का ढकोसला करने वाले मन से विकलांग है। कहानी ‘मानसिक विकलांग’ एक गहरा संदेश देती है। इसी तरह की छोटी सी कहानी में रमेश नाम के पात्र से समझाने की कोशिश की है कि जीवन एक रणभूमि है। जब कृष्ण ने जीवन से लड़ने का संदेश दिया तो मनुष्य जीवन से क्यों पलायन करे। रश्मि गर्ग यही जताना चाहती हैं कि परिवार के लिए समर्पित लोग जीवन से पलायन नहीं करते।

रश्मि गर्ग की दृष्टि में जीवन एक कैनवास की तरह है। इसमें वह प्रकृति को भी देखती हैं। कहानी ‘साइकस का अंकुरण’ में गमले में ठूंठ के माध्यम से यही अभिव्यक्त किया है। ठूंठ पर भी जीवन लौटता है। पत्ते लहलहाते हैं। फूल भी खिलते हैं। इसी तरह लेखिका ने व्रत के नाम पर दिखावा और अन्न का  महत्व बताते हुए बताया है कि सुबह-शाम भोजन करके भी मनुष्य सेहत के मामले में कितना गरीब है। कहानी ‘जन्माष्टमी का व्रत’ आंखें खोल देती हैं। रश्मि गर्ग ने कहानी ‘कच्चा दूध’ के माध्यम से समाज को बड़ा संदेश दिया है। हम मंदिरों में दूध चढ़ाते हैं, मगर कभी वंचित वर्ग के उन बच्चों को याद नहीं करते कि उन्होंने पिछली बार कब दूध पिया।

जीवन में कुछ जख्म गहरे होते हैं, लेकिन पेट की आग उससे भी गहरी होती है। कहानीकार ने एक आटोवालों की व्यथा को अपनी लघुकथा में इस तरह रखा कि आंखें नम हो जाती हैं। अपने यहां श्राद्ध ऐसी परंपरा है जो आज समाज के लिए जटिल हो गया है। इसमें लेखिका ने परंपरा में खोखलेपन को सामने रखा है। इसी तरह ‘अर्धचंद्र’ में एक दिव्यांग मां का गहन भाव है- कुछ चीजें अधूरी ही पूरी लगती है।  

मुखौटा शीर्षक से कहानी में लेखिका ने नूतन नाम की बार डांसर की पीड़ा बताई है कि जिंदगी की जंग लड़ने के लिए हर मनुष्य को अकसर मुखौटा पहनना पड़ता है। अंतिम ‘शरणागत’ अच्छी कहानी है। इसमें लेखिका ने पारंपरिक मूल्यों से जुड़ी युवती के द्वंद्व को सामने रखा है। पुनर्विवाह के साथ उसके जीवन में प्रेम लौट आता है। स्त्री के जीवन में अगर वैधव्य या तलाक से सूनापन आ जाता है तो उसे अपने जीवन में रंग भरने का प्राकृतिक अधिकार है।  

जीवन के कई रंगों से रश्मि वैभव गर्ग ने कहानियां सजाई हैं। हालांकि इन कहानियों में प्रूफरीडिंग की कमी खटकती है। मगर साफ-सुथरी छपाई और कहानियों के साथ रेखाचित्र तथा सुंदर आवरण ने संग्रह को आकर्षक बना दिया है। इसे दिल्ली के स्वतंत्र प्रकाशन समूह ने छापा है।  

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