-संतोषी बघेल
एक अनाम खत
लिखना चाहती हूं मैं
अपनी मां के नाम,
ढेरों शिकायतें, ढेरों नाराजगी के साथ।
मां ने क्यों नवाजी ये जिंदगी,
पूछना चाहती हूं उससे।
क्यों दी ये घुटी हुई सांसें,
दोगले समाज में पल-पल सिसकने के लिए?
क्यों दिया यह असुरक्षित बचपन,
जहां पल-पल डर रहा दरिंदों का,
क्यों कदम रखने दिया
हमें किशोरवय में,
जहां समाज ने वर्जनाओं के
नाम पर बांध दिया!
क्यों यौवन की दहलीज लांघने दी,
जहां समाज ने सिर्फ
विवाह को तरजीह दी,
नहीं चाहा कि बेटी पढ़े, आगे बढ़े,
लिख ले खुद की तकदीर।
क्यों दी गर्इं हिदायतें,
अच्छी पत्नी और मां बनने की?
क्यों मां ने ये नहीं सिखाया कि
बनना तुम अपनी ताकत,
रखना खुद का खयाल,
भरना अपने सपनों में रंग,
उड़ना आजाद पंछी की तरह।
क्यों खूंटे में बंधने और
दूसरों के लिए जीने की सीख दी,
मां, तुमने मुझमें अपनी परछाई देखी,
मगर क्यों नहीं देखे अपने दुख,
अपने जीवन की प्रवंचनाएंं।
मां, मैंने तब नहीं समझा था
तेरा दुख, तेरी घुटन
जो अब बेहतर समझने लगी हूं,
तुमने हमारे लिए सबकुछ
समर्पित कर दिया,
किन्तु मां, मुझे अपनी ही तकदीर
विरासत में क्यों दी,
क्यों नहीं तुमने मेरे लिए बेहतर सोचा?
मां, आज उस परिस्थिति से गुजर कर
मुझे तुम्हारी तकलीफों का इल्म हुआ है,
तुम्हारे लिए करुणा
भर आई है मन में।
मां, तुझे देखना था न,
तेरी परछाई के लिए बेहतर स्वप्न,
उसका खुशहाल भविष्य,
लेकिन तू भी मां न होकर समाज बन गई,
मुझसे ज्यादा समाज का
दायित्व तुम्हें सही लगा,
मुझे बना दिया तुमने समाज का हिस्सा,
मेरे अस्तित्व को नकार ही दिया।
मां, तुझसे बहुत सी शिकायतें हैं मुझे,
पर जानती हूं, तुमने मुझसे अधिक
किसी से प्रेम किया ही नहीं,
तेरी सुबह से रात की दिनचर्या,
मुझसे शुरू और मुझी पर खत्म होती थी।
मां, सारी शिकायतों के मध्य
तुमसे कहना चाहती हूं,
तुमसे अधिक मैंने भी
किसी से प्रेम नहीं किया।
(कवयित्री छत्तीसगढ़ में अंग्रेजी की व्याख्याता हैं)