अतुल मिश्र

अपना खाता खुलवाने के लिए रामभरोसे एक ऐसे बैंक के अंदर खड़े थे, जिसे बाहर से देखने पर राष्ट्रीयकृत कहा जा सकता था। राष्ट्र को समर्पित इस बैंक में कई किस्म के राष्ट्रवादी नारे लिखे थे और जिसमें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का वह वक्तव्य भी था, जिसमें अपनी मातृभाषा हिंदी के इस्तेमाल पर जोर दिया गया था। मजेदार बात यह थी कि यह स्लोगन अंग्रेजी में लिखा था।

‘रामभरोसे कौन है?’ बैंक के बाबू ने राम•ारोसे से ऐसे पूछा, जैसे वो किसी और का खाता खुद खुलवाने आए हों।

‘मैं ही हूं।’ रामभरोसे का आत्मविश्वास बोला।

‘क्या प्रमाण है कि आप ही रामभरोसे हैं?’

‘आधार कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस की कापी लगी हैं।’

‘ठीक है, पिताजी का नाम?’

‘श्यामभरोसे।’

‘क्या प्रमाण है?’

‘आधार कार्ड में लिखा है कि वो हमारे पिताजी हैं।’

‘हम कैसे मान लें कि यह सही है? डीएनए रिपोर्ट है आपकी और आपके पिताजी की?’

‘नहीं, वो तो नहीं है।’ निराश रामभरोसे ने कहा।

‘फिर कैसे काम चलेगा।’ बाबू ने चिंता व्यक्त की।

‘जब प्रमाणपत्रों में लिखा है, तो आप भी मान लें।’ रामभरोसे ने प्रार्थना सूचक शैली अपनाई।

‘हमारे मानने से क्या होगा? पेपर तो ऊपर तक जाते हैं। वे लोग नहीं मानते।’ बाबू ने मसले को बेहद पेचीदा बनाए कहा।

‘हमारा भरोसा नहीं है आपको?’ रामभरोसे ने पूछा।

‘आपका तो पूरा भरोसा हो गया, मगर अब आपके पिताजी का भरोसा नहीं हो रहा कि कौन हैं?’ अपने बाप पर बाप होने का ‘डाउट’ करने वाले बाबू ने फिर सवाल किया।

‘आपने अपने पिताजी की और खुद की डीएनए रिपोर्ट जमा की थी क्या अपनी नौकरी लेने के लिए?’ अब रामभरोसे की बारी थी।

‘उस वक्त यह सुविधा उपलब्ध नहीं थी।’ बाबू ने स्पष्ट किया।

‘मैं उन्हीं दिनों की पैदाइश हूं और मेरा खाता बैंक में खुले न खुले, अब मैं आपके बाप की डीएनए रिपोर्ट लेकर अखबारी समाचारों में आपका खाता जरूर खुलवा दूंगा।’

बताते हैं कि रामभरोसे के ऐसे वचन सुन कर उनका खाता बिना डीएनए रिपोर्ट लिए ही खुल गया।

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