प्रेरक व्यक्त्तित्व
हेमलता म्हस्के
नई दिल्ली। बाबा साहब आंबेडकर शिक्षा को मानसिक और शैक्षिक विकास का हथियार मानते थे। उनका मानना था कि शिक्षा ही एकमात्र ऐसा जरिया है जिससे राजनीतिक स्वतंत्रता और आर्थिक विकास हासिल कर सकते हैं और सामाजिक गुलामी से भी मुक्ति पा सकते है। बाबा साहब के इस कथन को लुधियाना शहर के हरिओम जिंदल ने साकार करके दिखाया है।
जिंदल अपने महत्त्वपूर्ण काम के लिए अकेले उदाहरण हैं। वैसे तो कई लोगों ने बच्चों को पढ़ाने का काम किया है लेकिन हरिओम जिंदल का काम उनकी कोशिशों का नतीजा है। उन्होंने बिना किसी सरकारी और गैर सरकारी सहयोग से सिर्फ अपने बूते गरीब, अनाथ और बेसहारा बच्चों के जीवन को बदल दिया है। उनमें आत्म सम्मान का भाव जगाया है।
पेशे से वकील हरिओम जिंदल ने शहरों में गली-गली कूड़ा कचरा बटोरने वाले पांच सौ से अधिक बच्चों को स्कूल का रास्ता दिखाया है। सैकड़ों बच्चों से कचरे की थैलियां छीन कर उनके हाथों में किताबें थमाई हैं। उन्होंने यह काम दो बच्चों से शुरू किया था और आज उनकी संख्या बढ़ कर पांच सौ से ज्यादा हो गई हैं। पहले एक स्कूल से शुरुआत की थी आज वे इन बच्चों के लिए छह स्कूल चला रहे हैं। वे बच्चों को सिर्फ अक्षर ज्ञान नहीं कराते हैं, शिक्षा के जरिए बच्चों को आत्म ज्ञान के साथ व्यावहारिक पहलुओं से भी परिचित कराते हैं जिससे वे बुद्धि और ज्ञान के मामले कभी किसी के मोहताज नहीं रहे।
हरिओम ने बहुत सोच विचार कर ऐसे बच्चों की शिक्षा के लिए खुद ही पाठ्यक्रम बनाया। इस पाठ्यक्रम को बहुत सराहना मिल रही है। वे बच्चों को ‘ए’ से एप्पल नही एडमिनिस्ट्रेशन पढ़ाते हैं। इसी से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वे बच्चों को किस तरह का पाठ पढ़ा रहे हैं।
अपना लाखों का कारोबार छोड़ कर जिंदल पिछले दस सालों से झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले गरीब बच्चों को निशुल्क पढ़ा रहे हैं। उनकी बस यही कोशिश है कि झुग्गियों के बच्चों की प्रतिभा संसाधनों के अभाव में दम न तोड़े। इसके लिए वो न सिर्फ झुग्गियों में जाते हैं, बल्कि खुद बच्चों के हाथों से कूड़ा छीनकर उन्हें किताबें पकड़ाते हैं।
पंजाब के लुधियाना में नौ जून 1966 में पैदा हुए हरिओम जिंदल का बचपन आम बच्चों की तरह नहीं बीता। पिता सुदर्शन जिंदल पेशे से एक कारोबारी थे। हर पिता की तरह वे अपने बच्चे को एक बेहतर जिंदगी देना चाहते थे, लेकिन कारोबार में नुकसान होने के कारण उन्हें अचानक से फिरोजपुर जाना पड़ा। इस कारण हरिओम की मैट्रिक स्तर की पढ़ाई गांव में ही हुई। किसी तरह उन्होंने पढ़ाई जारी रखी और गांव से निकल कर चंडीगढ़ के महाविद्यालय में दाखिला लिया और जिंदगी में आगे बढ़े।
हरिओम बताते हैं कि यह उनके लिए कठिन समय था। परिवार का कारोबार तहस-नहस हो गया था। पिता आर्थिक संकट से जूझ रहे थे। ऐसे में उनके सामने बड़ा सवाल था कि वे परिवार की मदद कैसे करें। इसके लिए उन्होंने शुरुआत में कई छोटी-मोटी नौकरियां कीं। कम से कम पैसों में खर्च चलाया और आगे चलकर शिपिंग का कारोबार शुरू हुआ। धीरे-धीरे उनके परिवार की हालत सुधरी। सबकुछ पहले जैसा होने लगा था, लेकिन कुछ था जो हरिओम को परेशान कर रहा था।
वे कहते हैं, मैं अक्सर इस बात को सोच कर परेशान होता था कि मेरे पास तो माता-पिता थे। कुछ कठिनाई थीं, तो मेरे पास पढ़ने के संसाधन भी थे। लेकिन, उन बच्चों का क्या जिनके पास मां-बाप नहीं हैं। वे बच्चे कैसे पढ़ाई करते होंगे, जिनके पास संसाधन नहीं हैं। यही कारण रहा कि मैंने कारोबार छोड़ कर 44 साल की उम्र में वकालत की पढ़ाई शुरू कर दी, ताकि झुग्गियों के बच्चों को उन्हें अधिकारों के प्रति जागरूक कर सकूं। अब मैं झुग्गियों के बच्चों के लिए छह स्कूल चला पा रहा हूं, जिसमें सैकड़ों बच्चे पढ़ते हैं। इनमें से ज्यादातर वे बच्चे हैं, जो झुग्गियों में कूड़ा बटोरते थे। इन्होंने कभी स्कूल का मुंह भी नहीं देखा था।
हरिओम जिंदल का काम कुछ अलग इसलिए है कि उन्होंने एल्फाबेट की एक खास किताब तैयार की है, जिसके जरिए वे बच्चों को बी फार बॉल नहीं बैलेट, सी फार कैट नहीं कंस्टीटयूशन पढ़ाते हैं। हरिओम बताते हैं कि इस तरह पढ़ाने के दो बड़े फायदे हैं। पहला बच्चे शिक्षित होते हैं, दूसरा वे समाज के प्रति जागरूक होते हैं। बच्चों को पता चलता है कि एडमिनिस्ट्रेशन क्या होता है, कंस्टीटयूशन क्या है।
हरिओम बच्चों को कंप्यूटर चलाना भी सिखाते हैं। इसके लिए उन्होंने एक कंप्यूटर सेंटर खोल रखा रखा है, जहां झुग्गी के बच्चे निशुल्क कंप्यूटर चलाना सीखते हैं। हरिओम का काम अब जमीन पर दिखाई देने लगा है। उनके पढ़ाए बच्चे फार्राटेदार अंग्रेजी बोलते हैं। कई बच्चे अलग-अलग मंचों पर अपनी प्रतिभा के लिए सम्मानित किए जा चुके है। हरिओम जिंदल को भी उनके इन कामों के लिए कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जा चुका है।
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हरिओम कोरी बात नहीं, बुनियादी पाठ पढ़ाते हैं बच्चों को