रश्मि वैभव गर्ग
लघुकथा
बुधवार था आज, बहुत दिनों से गणेश जी की पूजा करने का मेरा मन था, तो आज गणेशजी के दर्शन करने आ गई थी मैं।
दर्शन करने के बाद कॉलोनी की एक परिचित रीना से मुलाकात हुई, जो यदा कदा पार्क में मिल जाया करती थीं। वह मंदिर प्रांगण में बैठे गरीब लोगों को स्वेटर वितरित कर रहीं थीं।
जाड़े में गरीबों को स्वेटर वितरण मेरे मन को छू गया, इसलिए उस नेक काम में मैंने भी कुछ योगदान देने की सोची।
रीना जी से बात की कि मैं भी इस नेक काम में कुछ सहयोग करना चाहती हूं, तो मधुरता से सहमति देते हुए बोली, क्यों नहीं तुम भी इस नेक काम में सहयोग कर सकती हो। वितरण के बाद मेरे घर चलना। वहां चाय पियेंगे और तुम्हें मैं स्वेटर वितरण संबंधी सब जानकारी भी दे दूंगी। मैं सहर्ष तैयार हो गई और उनकी मदद करवाने लगी।
हम उनके घर जाने लगे तो, रास्ते में रीना जी बोलीं मुझे तो समाज सेवा से फुरसत ही नहीं, आए दिन पेपर में मेरा नाम देखतीं होंगी तुम, बड़ी खुश होकर वह बोलीं। मैंने हां में सिर हिलाया और उनके प्रति सम्मान से सिर झुकाया।
घर पहुंच कर उनकी बाई ने दरवाजा खोला और उनके आलीशान ड्राइंग रूम में बिठाया। सहसा किसी के कराहने की आवाज ने मेरा ध्यान आकर्षित किया, अरी रीना मुझे एक कंबल और उड़ा दे, सुबह से सर्दी लग रही है, ये बाई भी जाने कहां जाकर बैठ गई।
ठंड से कांपती वृद्ध आवाज सुन कर, मैं पास ही के कक्ष में गई, तो रीना जी जोर से अपनी सास को डांट रही थीं। कह रहीं थीं कहां है सर्दी? आपको तो खाली पड़े पड़े कुछ न कुछ परेशान ही करना है। रीना जी के कड़क स्वर और उनकी सास की कांपती आवाज के बीच मैं रीना जी के स्वेटर वितरण में सामंजस्य नहीं बिठा पा रही थी।
(कोटा निवासी रश्मि वैभव गर्ग कहानीकार हैं)