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दिलीप कुमार

सुनहरे दौर का एक-एक गीत और एक-एक फिल्म कई कहानियों को समेटे हुए है। सिनेमा के इस दौर को स्वर्णिम काल कहा जाता है। सस्पेंस थ्रिलर फिल्म सीआइडी से हिंदी सिनेमा में तीन-तीन धूमकेतुओं का उदय हुआ था। एक तो मिस्ट्री फिल्म मेकर राज खोसला, दूसरी वहीदा रहमान  और तीसरे महमूद। इसके साथ ही गुरुदत्त और देव साहब की मित्रता और प्रगाढ़ हो गई। गुरुदत्त साहब ने अपने सहायक राज खोसला को बतौर डायरेक्टर मौका दिया था। ‘सीआईडी’ के बाद खोसला ने तीन और फिल्मों में देव साहब के साथ काम किया लेकिन 1960 में रिलीज हुई फिल्म ‘बंबई का बाबू’ के बाद दोनों ने 13 साल तक साथ काम नहीं किया। फिर 1973 में दोनों की साथ में छठी फिल्म ‘शरीफ बदमाश’ फिल्म आई। अपने पूरे करियर में खोसला ने देव साहब के साथ छह फिल्मों में काम किया। दोनों की जोड़ी बेहद हिट रही।

देव साहब एवं गुरुदत्त साहब संघर्ष के दिनों में मित्र थे। दोनों ने एक दूसरे से वादा किया था कि जब देव साहब कोई फिल्म बनाएंगे तो उसे गुरुदत्त साहब को निर्देशन का मौका देंगे। वहीं जब गुरुदत्त साहब कोई फिल्म बनाएंगे तो वे देव साहब को बतौर अभिनेता लेंगे। इस फिल्म को गुरुदत्त साहब ने निर्देशित नहीं किया था, लेकिन उन्होंने इसे प्रोड्यूस करके अपना वादा जरूर निभाया। ‘सीआइडी’ की कहानी मशहूर एक्टर और फिल्ममेकर टीनू आनंद के पिता इंदर राजा आनंद में लिखी थी।

इस फिल्म के जरिए गुरुदत्त साहब वहीदा रहमान को हिंदी सिनेमा में लेकर आए। उन्होंने एक तेलुगू फिल्म में वहीदा का डांस देखा था। उन्होंने रात में ही अपने मित्र अबरार अल्वी को बुलाया और कहा अभी हैदराबाद चलना है, मुझे अपने ड्रीम प्रोजेक्ट प्यासा के लिए हिरोइन मिल गई है। अबरार अल्वी ने कहा, कल चलते हैं, अभी बहुत रात हो गई है। गुरुदत्त साहब की फिल्मों के प्रति दीवानगी दार्शनिक प्रवृति वाली थी। गुरुदत्त साहब नहीं माने। आखिरकार वहीदा को मुंबई ले आए। स्क्रीन टेस्ट लेकर उन्हें अपनी अगली फिल्म ‘प्यासा’ (1957) के लिए फाइनल कर लिया, पर उन्हें सीआईडी में भी एक ‘सपोर्टिंग रोल’ दिया ताकि वे ‘प्यासा’ के लिए तैयारी कर सकें। ऐसी दूरदर्शी सोच गुरुदत्त साहब जैसे फिल्मकार की ही हो सकती है। फिल्म में मशहूर हास्य अभिनेता महमूद भी एक छोटे से नेगेटिव रोल में नजर आए थे।

देव साहब संगीत की गहरी समझ रखते थे। हिंदी सिनेमा में सबसे नायाब संगीत एवं गीत देव साहब की फिल्मों में ही मिलता है। देव साहब अपनी फिल्मों में संगीत को बहुत महत्त्व देते थे। देव साहब को जब पता चला मुझ पर कोई गाना नहीं फिल्माया जाएगा, तो वे अवाक रह गए। देव साहब ने फिल्म को साइन करने से पहले गुरुदत्त साहब से कहा था कि कम से कम आधा दर्जन गाने तो होना चाहिए। देव साहब ने राज खोसला को खूब समझाया, लेकिन राज का कहना था कि एक सीआइडी इंस्पेक्टर को गाना गाते हुए देखना बिल्कुल ही बेवकूफाना लगेगा। देव साहब का तर्क था कि मेरे प्रशंसक फिल्म देखने नहीं जाएंगे। आपकी फिल्म फ्लॉप हो जाएगी। मुख्य बात यह थी कि देव साहब को रफी साहब की आवाज जरूर चाहिए होता था। बाद में तय हुआ कि देव साहब ‘आंखों ही आंखों में…’ गाने के मुखड़े की कुछ लाइन गाएंगे।

फिल्म संगीत के मामले भी हिट थी। इसमें ‘ये है बंबई मेरी जान…’, ‘लेके पहला पहला प्यार…’, ‘आंखों ही आंखों में इशारा…’ और ‘कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना…’ जैसे सुपरहिट गाने थे। बतौर संगीतकार ओपी नय्यर साहब ने अपना नशीला संगीत दिया। गाने मजरूह सुल्तानपुरी और जान निसार अख्तर ने लिखे थे। वहीं फिल्म का गाना, ‘आंखों ही आंखों में इशारा हो गया…’ खुद गुरुदत्त साहब ने पिक्चराइज किया था।  

देव आनंद, शकीला और वहीदा रहमान अभिनीत फिल्म सीआइडी एक सस्पेंस थ्रिलर है। इस फिल्म के बाद हिंदी सिनेमा में थ्रिलर फिल्मों की एक धारा बहने लगी। जो लोग देव साहब को केवल रोमांटिक हीरो कहते हैं, मगर बाद में उन्हें हरफनमौला अभिनेता भी कहा। ‘सीआईडी’ में देव साहब की संजीदा अभिनय देखा जा सकता है।  वहीं राज खोसला को हिन्दी सिनेमा में मिस्ट्री मेकर कहा गया।  

फिल्म की कहानी की बात करें तो इसमें अखबार के संपादक की हत्या कर दी जाती है। सीआइडी इंस्पेक्टर शेखर (देव साहब) के पास आरोपी को पकड़ने के पर्याप्त सबूत हैं। यह तय है कि मामला जितना सीधा दिख रहा है, उतना सीधा नहीं है।  शेखर (देव साहब) गहराई से पड़ताल करता है, खुद को पुलिस की बर्बरता का आरोपी पाता है। संपादक की हत्या करने वाला अपराधी मर जाता है। अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए सिस्टम से भागता फुर्तीला जासूस विपरीत परिस्थितियों में भी विनम्र रहता है।  

एक खतरनाक महिला कामिनी (वहीदा रहमान) जो खुद को बचाने के लिए के लिए कोशिश कर रही है। इंस्पेक्टर शेखर (देवानंद) सिस्टम से बचने के लिए खुद फरार हो गया, ताकि सबूत इकट्ठे कर सके। गुरुदत्त साहब द्वारा निर्मित सीआइडी एक संदिग्ध फोन कॉल के साथ शुरू होती है. कॉल में एक अखबार संपादक के ऊपर हमला हो जाने की बात बताई जाती है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं होता कि फोन किसने किया है। इसके तुरंत बाद, जब तक शेखर (देवानंद साहब) घटनास्थल पर पहुंचता है, अखबार के संपादक की मौत हो जाती है। एक अमीर व्यापारी धरमदास (बीर सखूजा) की निशानदेही थी, जिसके अंडरवर्ल्ड से संबंध होने की संभावना थी।

मामला सीआइडी इंस्पेक्टर शेखर (देव साहब ) को सौंपा गया है जो रेखा (शकीला) के साथ प्रेम करता है। वह संपादक की हत्या के रहस्य को उजागर करने और वास्तविक अपराधी पहुंचने की दिशा में आगे बढ़ता है। हालांकि असली अपराधी उससे कहीं ज्यादा चालाक है और वह अपने चारों ओर झूठ, छल और साजिश का जाल बुनता है और खुद को बचा लेता है। वहीं हत्यारे (महमूद) की हत्या के आरोप में इंस्पेक्टर शेखर (देव साहब) को ही फंसा दिया जाता है। इंस्पेक्टर शेखर फरार हो जाते हैं। जिससे सबूत इकट्ठे कर सकें। उनके ऊपर जानलेवा हमले होते हैं। वो कातिल के घर तक पहुंच जाते हैं।

कोई दो राय नहीं कि सीआइडी हिंदी सिनेमा की पहली सस्पेंस थ्रिलर फिल्म थी, जिसने हिन्दी सिनेमा को एक नई धारा दी। इसमें देव साहब का अद्वितीय अभिनय यादगार है। वहीं राज खोसला के निर्देशन में गुरुदत्त साहब की खूब झलक दिखती है। इस फिल्म में पहले गानों से परहेज की बात सोची गई, बाद में यह बड़ी म्युजिकल हिट साबित हुई।  30 जुलाई 1956 को भव्य कार्यक्रम के साथ इस फिल्म को रिलीज किया गया। यह उस साल की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म थी।  

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