– प्रतिभा आहूजा नागपाल
वो आई थी चांदनी सी बन कर
मेरी दहलीज पर।
मानो चाँद ने शिद्दत से उतारी हो
कि जा रोशन कर उस आंगन को
जो तेरे वजूद से चमकेगा।
पर बेखबर वो कि एक घर से निकल
कौन उसे नया वजूद देगा।
देख रहा था मैं उसे घुटते हुए
वक्त के सही होने के इंतजार में बिखरते हुए।
मुझसे मेरी दीवारें कहती रहीं
दहलीज लांघ जाती तो
यूं ना सहती वो
आज मौन सी जमीन पर पड़ी है।
चांदनी की चमक मिट गई है
अब घर में सन्नाटा पसरा है।
उसके बिना ये घर अकेला रह गया है।
सब भूल जाएंगे उसको
यादों मे कैद कर उसे कहीं दफ़्न कर आएंगे
पर मेरा क्या मेरा हर कोना उसको ढूंढेगा,
उसके कदमों की आहट को कैसे भूलेगा।
ये दीवारें मुझ से पूछेंगी-
कहां गई वो जिसकी रोशनी यहां चमकती थी।
तुमने एक बार भी ना सोचा
तुम बिन ये घर अकेला रह जाएगा…।