-संतोषी बघेल

जब-जब खुद को निहारती हूं,
एक झलक उनकी उभर जाती है,
वो जो दीवार में तस्वीर टंगी है न,
आज भी जैसे देख मुस्कुरा रही है।
तुम्हारी अनुकृति मैं,
तुम सी होकर भी,
मैं तुम नहीं बन सकती न मां।
न तुम उतनी दूर से
वापस आ सकती हो,
मगर आईने में बनता हर प्रतिबिंब
मुझे तुम्हारे होने का एहसास देता है।

मैं तुम्हारी ही तो लिखावट हूं न मां,
तुमने ही मुझे रचा और सांसें दी हैं,
तुम्हारी प्रत्येक स्मृति
आज भी सहेजी हुई है,
तुम्हारी हर सीख का
आज भी अनुकरण करती हूं।

तुम्हारे कमरे की हर वस्तु में
कैद हैं तुम्हारी स्मृतियां,
तुम्हारी आवाजें, तुम्हारी हिदायतें
तुम्हारा यूं खुद में खोए रहना,
तुम्हारी मीठी झिड़कियां और
तुम्हारा भीने-भीने मुस्कुराना,
सबकुछ यंत्रवत जारी है मगर,
तुम्हारी कमी किसी भी तरह
भरती नहीं है मां,
पल-पल तुम्हारी स्मृतियां बिंधती हैं मुझे,
आज भी हर दु:ख, हर यंत्रणा में
केवल तुम्हारा ही स्मरण हो आता है मां…।

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