अंजू खरबंदा

“सुना आपने कुछ! पिताजी ने घर के कागजात दीदी के घर रखवा दिए हैं।” पत्नी कुलबुलाती सी मेरे पास आकर बोली।

“तुम्हें किसने कहा।” शांत लहजे में मैंने पूछा।

“अभी पिताजी फोन पर बात कर रहे थे तो मैंने सुना!” पत्नी तमतमाते हुए बोली।

“भाग्यवान क्या सुना ये तो बताओ!” मैं फाइलों में उलझे- उलझे ही बोला।

“आप को तो इन मुई फाइलों के अलावा किसी और से कोई लेना-देना ही नही है!” पत्नी का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा।

“इन्हीं की बदौलत ही हम अच्छा खा पहन रहे हैं। समझी!” मैंने भी थोड़ा रुष्ट होने का नाटक करते हुये जवाब दिया।

“हां…हां…बस! आप और आपकी फाइलें! आपको तो न घर की चिंता है ना बच्चों की।” पत्नी के कटाक्ष चरम सीमा को छूने लगे।

अब मुझे भी उसकी बातों मे आनंद आने लगा था। उसे उकसाते हुए मैंने पूछा- “अच्छा बताओ, तुम कहना क्या चाहती हो आखिर! “

“सुनिए जी! मुझे तो रात रात भर नींद ही नहीं आती चिंता के मारे। बस इतना पता लगाने की कोशिश करो कि घर किसके नाम किया है पिताजी ने।” थोड़ा नरम पड़ते हुए श्रीमतीजी बोली।

“उससे क्या होगा।” मैंने अगला प्रश्न उछाला।

“उससे क्या होगा! आखिर पता तो होना चाहिए हमें। आगे हमारे भी बाल बच्चे हैं।” कुपित होकर पत्नी कठोर लहजे में बोली।

“अच्छा मान लो पिताजी ने जायदाद का कुछ हिस्सा दीदी के नाम कर •ाी दिया है तो! ” मैंने अनजान बनते हुये सवाल दागा।

“तो… तो… मैं इसका विरोध करूंगी।” पत्नी ने लगभग दांत भींचते हुए कहा।

मैंने मुस्कुराते हुए पत्नी को कहा- “अच्छा और अगर कल को मैं अपनी बिटिया को जायदाद में से कुछ हिस्सा देना चाहूं तो…क्या तब भी तुम ऐसे ही विरोध करोगी!”
अब श्रीमती जी का चेहरा देखने लायक था ।

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