साहित्य डेस्क
नई दिल्ली। दहशत का वायरस फिर फैल गया है। दुनिया भर में कोविशील्ड के दुष्प्रभाव के खुलासे के बाद दहशत का एक नया वायरस आया है। दरअसल, बहुराष्ट्रीय कंपनी एस्ट्राजेनेका ने कोविड टीके की खरीद-बिक्री पर रोक लगा दी है। उसने अपने टीके वापस मंगा लिए हैं। यह एस्ट्राजेनेका ही है जिसने चार साल पहले 2020 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के साथ  मिल कर कोरोना के उपचार के लिए यह टीका बनाया था। उसके ही फार्मूले पर सीरम इंस्टीट्यूट ने भारत में कोविशील्ड नाम से टीका तैयार किया था। अब इसको लेकर दुनिया भर के लोग सहमे हुए हैं। ऐसा इसलिए कि निर्माता कंपनी ने पहली बार कबूल किया है कि इस टीके के प्रतिकूल असर हो सकते हैं।

जिस हड़बड़ी के साथ कोरोना के टीके अल्प समय में तैयार किए गए, उसको लेकर तमाम जन स्वास्थ्य वैज्ञानिकों ने सवाल उठाए थे। अब जिस तरह से एस्ट्राजेनेका ने रक्त का थक्का जमने, ब्रेन हेमरेज होने और दिल का दौरा पड़ने जैसे प्रतिकूल असर की बात कबूली है, उससे यह टीका लगवाने वालों के मन में कई आशंकाएं घर कर गई हैं। ऐसे दौर में भारत के चर्चित जन स्वास्थ्य विज्ञानी डॉ. एके अरुण की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘महामारी और जन स्वास्थ्य’ में कोविड-19 संक्रमण के दौर में उठे मानवीय पहलुओं की जो चर्चा की है, वह एस्ट्राजेनेका के बयान के बाद फिर से प्रासंगिक हो गई है।

याद है आपको 25 मार्च 2020 की वह काली रात। जब अचानक देशभर में लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई थी। इसके बाद का वह मंजर कोई भूल नहीं पाया। असमय मौत की आशंका से घबराए लाखों प्रवासी मजदूर अपनी ही जगह मानो पराए हो गए। वे सिर पर सामान लादे पैदल ही अपने घरों की ओर चल पड़े। सड़कों पर उनके लिए कोई वाहन नहीं था। रेल-बस सेवाएं बंद थीं। पंजाब, हरियाणा और दिल्ली से पूर्वी भारत की ओर निकले असंख्य बेबस मजदूर भूखे पेट सड़कों पर चलते रहे। रास्ते में सोते जागते और फिर चलते। मार्ग में उनको खाना देना वाला और उनका उपचार करने वाला कोई नहीं था। उनके पैरों में छाले पड़ गए। जाने कितने मजदूरों में रास्ते में दम तोड़ दिया। अपने घरों में नजरबंद हो गए आम नागरिक उन दृश्यों को देख कर कांप उठते थे। आज कारोना टीके लगा चुके लोग फिर से सहमे हुए हैं जो अब तक मानते रहे कि वे तो सुरक्षित हैं।  

अपनी पुस्तक में डॉ. अरुण ने कोविड-19 से मिले सबक को न केवल याद किया है बल्कि महामारी और उसके उपचार पर एक वैकल्पिक दृष्टिकोण भी सामने रखा है। उन्होंने लिखा है कि कोरोना वायरस से फैली महामारी के तीसरे वर्ष में प्रवेश करने के बाद हम में से अनेक लोग पहले से बेहतर ढंग से सांसें ले रहे हैं, लेकिन अब भी अनेक लोग श्वांस संबंधी दिक्कतें के साथ ही जी रहे हैं। यह भी एक तथ्य है कि पूर्ण टीकाकरण के बाद सरकार की किसी भी स्वास्थ्य एजंसी ने यह कभी आश्वस्त नहीं किया कि ये लोग दोबारा कोरोना से संक्रमित नहीं होंगे या गंभीर रूप से बीमार नहीं होंगे।

एस्ट्राजेनेका की स्वीकारोक्ति के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि टीके ने निसंदेह लाखों लोगों की जानें बचाई, मगर यह पूर्णत: सुरक्षित नहीं है। कम से कम कोविशील्ड के मामले में साफ हो गया है।

दहशत का हुआ कारोबार
अपनी पुस्तक में डॉ. अरुण ने लिखा है कि कोरोना अब भी एक रहस्य है। आमजन की बात छोड़िए, चिकित्सा से जुड़े अनेक वैज्ञानिक भी नहीं समझ पाए कि यह संक्रमण प्राकृतिक उत्पत्ति थी या किसी प्रयोगशाला से निकली किसी शैतान और शातिर जिमगा की उपज। उन्होंने आगे लिखा है-कोई भी परजीवी अपने मेजबान के शरीर को बीमार कर देना नहीं चाहता। फिर सवाल उठता है कि पूरी दुनिया में कोरोना संक्रमण से हाहाकार क्यों मचा? लेखक का मानना है कि कोरोना वायरस को किसी भी जैविक हथियार के रूप में पेश करना या किसी प्रयोगशाला से निकला मानव संहारक वायरस बताना वैज्ञानिक कसौटी पर खरा उतरता दिखता नहीं। फिर क्या था मामला?

डॉ. अरुण ने अपनी पुस्तक में दावा किया है कि कोरोना के खौफ को बढ़ाने में विश्व स्वास्थ्य संगठन और डर का कारोबार करने वाली दवा कंपनियों का बड़ा योगदान है। कोरोना के फैलने और उससे लगातार हो रही मौतों से पूरी दुनिया दहशत में आ गई। वैश्विक स्तर पर पूर्णबंदी लगाई गई। कोरोना वायरस से ज्यादा उसका डर लोगों के दिमाग में बैठ गया। यह इतना आसान भी नहीं था कि एक झटके में इसका टीका तैयार हो जाता। लंबी अवधि के प्रयोग और विभिन्न जांच के बाद ही व्यापारिक अनुमति दी जाती है। मगर कोरोना के मामले में सब कुछ आनन-फानन हुआ। टीका बनाने वाली कंपनियों ने निवेश कर अपने कारोबार में मुनाफा कमाया। डॉ. अरुण का कहना है कि कोरोना संक्रमण ने पूरी दुनिया में दहशत का जो माहौल बनाया, उससे एक बात तो स्पष्ट है कि आगे भी मानवता को डर के साये में ही जीना होगा।

डर से बाहर निकलना होगा
दहशत की आड़ में कंपनियां फिर कारोबार न करें, इसलिए हमें इससे बाहर निकलना होगा। अपनी पुस्तक में लेखक ने लिखा है- इस डर ने लोगों के शरीर, दिमाग और भावनाओं पर असर डाला है। लोग अवसाद, उदासी, चिड़चिड़ापन और थकान की वजह से जड़ हो गए। उत्साह लगभग क्षीण हो गया। ऊपर से अव्यवस्थित लॉकडाउन ने लोगों के आर्थिक आधार को लगभग ध्वस्त कर दिया। कोरोना ने उतनी दिक्कतें नहीं दीं, जितनी इसकी दहशत ने। इस दहशत के सहारे कोरोना के नाम पर व्यापार की बुनियाद पड़ी है। एस्ट्राजेनेका के स्पष्टीकरण के बाद तो अब इस कारोबार की कलई खुल गई है।

कई सवालों के अब तक जवाब नहीं  
कोरोना काल में अमेरिका के अलावा आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, जर्मनी सहित कई देशों ने चीन के साथ विश्व स्वास्थ्य संगठन पर भी सवाल उठाए कि कोरोना विषाणु फैलने की जानकारी होने पर भी उसने समय पर आगाह क्यों नहीं किया। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तो डब्लूएचओ के फंड रोकने की धमकी की और यहां तक कहा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन चीन की जनसंपर्क एजंसी के रूप में काम कर रहा है। उन्हीं दिनों अमेरिकी अखबार ‘न्यूयार्क  पोस्ट’ के अनुसार चीन ने मान लिया था कि उसने देश में फैले कोरोना संक्रमण के शुरुआती नमूनों और मामले से जुड़े सबूतों को नष्ट कर दिया है। डॉ. अरुण ने लिखा है-जहां दुनिया में संक्रमण फैलने और फैलाने पर विवाद रहा है, लगभग सभी राज्यों में कोरोना से मरने वालों का आंकड़ा छिपाया गया। आंकड़ों की स्पष्टता नहीं होने से महामारी की तीव्रता के आकलन में आईसीएमआर को दिक्कत आ रही थी।

आजीविका का संकट गहराया
पुस्तक के दूसरे अध्याय में डॉ. अरुण लिखते हैं- कोरोना संक्रमण का मामला चूंकि खूब बढ़ गया था तथा लोगों के ज्यादा संक्रमित होने की स्थिति में वैक्सीन का धंधा खूब चला। इसलिए कोरोना संक्रमण की रोकथाम के सामाजिक और राजनीतिक उपायों को छोड़ कर सरकार भी वैक्सीन के प्रचार-प्रसार में लगी थी। मगर आईसीएमआर और स्वास्थ्य मंत्रालय सब कोरोना के इलाज और बचाव में चल रहे उपायों से धीरे-धरे हटते गए और लोगों को कोरोना के साथ जीने का मंत्र दिया गया। इसी के साथ वैक्सीन बेचने-बांटने का कारोबार शुरू हो गया। यही वह दौर था जब भारत में 40 करोड़ लोगों के सामने आजीविका का संकट गहरा चुका था। फैक्टरियों और कंपनियों में न जाने कितने कर्मचारियों की नौकरियां चली गईं।

आपदा से सबक क्यों नहीं
यह हैरत की बात है कि जिस आपदा से सबक लेना चाहिए उसमें हम अवसर तलाश रहे थे। डॉ. अरुण ने इस बारे में पुस्तक में लिखा है कि आपदा में अवसर तलाशने की जगह क्या हम आपदा के सबक से मानवीय समाज और मानवता की खुशहाली का रास्ता नहीं ढूंढ सकते? इसको लेकर एक अच्छी पहल हो सकती थी। उन्होंने लिखा है कि जिन चिकित्साकर्मियों को कोरोना वारियर बताया जा रहा था, वे ही कई समस्याओं का रोना रो रहे थे। उधर, कोरोना के नए-नए स्वरूपों ने भी कम नहीं डराया। उड़ानें रद्द की गईं। आवाजाही ठप हो गई। देश में बाहर से आने वालों पर निगरानी की गई।

कोरोना हमेशा मनुष्यों के साथ रहेगा
लेखक ने सवाल उठाया है कि कोरोना अपना स्वरूप बदल रहा था, तो जो वैक्सीन आने वाले थे, क्या वे असरदार होते। कंपनियां कह रही थीं कि वैक्सीन असरदार होंगे। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के प्रो. रवि गुप्ता के अनुसार कोरोना वायरस वैक्सीन से बचने के कगार पर है और यह इस दिशा में कई कदम आगे बढ़ चुका है। दूसरी ओर कंपनियां कह रही थीं कि ये वैक्सीन ‘इम्यून बूस्टर’ की तरह हैं। ऐसे में बतौर जन स्वास्थ्य विज्ञानी डॉ. अरुण का आकलन था और जिसका जिक्र उन्होंने किया है-वायरोलॉजिस्ट की बातों से मेरी यह आशंका सही साबित होती दिख रही थी कि कोरोना संक्रमण दरअसल, एक ‘फ्लू’ है। जो मनुष्यों के साथ रहेगा और सामान्य जुकाम-खांसी की तरह कमजोर इम्युनिटी वाले लोगों के लिए जानलेवा बना रहेगा।  

इम्युनिटी ही बचाती है मनुष्य को
छह अध्यायों में बंटी यह पुस्तक कोरोना संक्रमण को समझने की एक बेहद ईमानदार कोशिश है। इस किताब में विषाणुओं की दुनिया का रोचक विवरण है। इसमें पता चलता है कि कई वायरस तो मनुष्य के मित्र हैं। कई तो करोड़ों की संख्या में हमारे शरीर के भीतर रहते हैं। आपदा में अवसर का लाभ किसी वर्ग विशेष को बेशक मिला हो, मगर जनता हर दिन तिल-तिल मरती रही। लाखों-करोड़ों के पैकेज का हिसाब क्या है, किसी को नहीं मालूम। ब्लैक में बिक रही रेमडेसिविर पर भी 12 से 28 फीसद जीएसटी वसूली गई। लेखक ने बताया है कि महीनों लॉकडाउन में रह कर जनता को समझ में आ गया कि कोरोना से रोग प्रतिरोधक क्षमता ही लड़ती है। मगर जैसे ही यह चर्चा आम हुई, इसका भी कारोबार करने से कंपनियां नहीं बाज आईं।  

लेखक ने यह भी सवाल उठाया है कि टीके और टीके बनाने वाली कंपनियों के पीछे कारपोरेट की इतनी दिलचस्पी क्यों है? यह रहस्य समझना इतना आसान नहीं है। उन्होंने लिखा है- महामारी तो एक बहाना है। बीते चार बरसों को याद कीजिए। महामारी की आड़ में हमें गंवार, भिखारी और लाचार बनाने की कितनी कोशिश की गई। हम बने भी। ध्यान रहे, महामारी भी कमजोर इम्युनिटी वाले को ही निशाना बनाती है।

डॉ. एके अरुण की पुस्तक ‘महामारी और जन स्वास्थ्य’ कोरोना से जुड़े ऐसे कई पहलुओं की तरफ ध्यान खींचती है जिन पर किसी ने सोचा ही नहीं। लेखक ने सभी अध्यायों को तथ्यात्मकता के साथ तो प्रस्तुत किया ही है, लेकिन यह विचारोत्तेजक भी है। लेखक ने सरल भाषा में और अंग्रेजी के साथ उन तमाम शब्दों का प्रयोग किया है जो बोलचाल में शुमार हैं तथा कोरोना काल के बाद सहजता से लोगों की जुबान पर चढ़ चुके हैं। कोविड-19 संक्रमण से उपजे कई सवालों पर यह प्रामाणिक पुस्तक है। यह महामारी के दौरान मानव जीवन के तमाम पहलुओं की पड़ताल करने के साथ जागरूक भी करती है। इसे अंतिका प्रकाशन ने छापा है।

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कोविशील्ड के दुष्प्रभाव के खुलासे से उठे कई सवाल

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