-अतुल मिश्र

अपराध उन्मूलन दिवस मनाया जा रहा था। किसी कोतवाली में एक युवक को पकड़ कर लाया गया था और जिसे देखने से अंदाजा लगाया जा सकता था कि जो गुनाह उसने किया ही नहीं था, वह उससे कबूल करवाया जा रहा है।

वहां के कोतवाल ने अपने पुलिसिया बेंत को हवा में कुछ इस तरह हिलाया कि अगर हवा का कोई सीना होता, तो उस पर कई सारे प्रश्नचिह्न के गोल घेरे दर्ज हो जाते और बाद में अर्थ लगाना भी मुश्किल होता कि आखिर जुर्म कबूलवाने की यह कौन सी कलात्मक शैली है? युवक मन ही मन कोतवाल के बेंत की लंबाई और मोटाई नापते हुए उससे अपने शरीर का तुलनात्मक अध्ययन करने में लगा था। कोतवाल ने उसे घूरते हुए पहला सवाल दागा-

“क्या नाम है तेरा?”

“कल्लन।” युवक ने संक्षिप्त सा जवाब दिया।

“पूरा नाम बोल।”

“पूरा अभी रखा नहीं है, सर। छूटते ही रख लूंगा।”

“बाप का नाम?”

“लल्लन।”

“यह धंधा कब से कर रहा है?”

“कौन सा?”

“जो तुझे अभी कबूल करना है।”

“क्या कबूल करना है?”

“यही कि तू डकैती डालने के इरादे से सड़क पर खड़ा था और तभी दीवान जी ने तमंचे सहित पकड़ लिया।” कोतवाल ने अपने कुबूलवाने के अंदाज की प्रशंसा की आशा में अपने मातहतों की तरफ सकारात्मक भाव से देखा, तो मातहतों ने उनकी योग्यता को मुस्कुराहट भरे शीर्ष हिला कर अपनी स्वीकृति दे दी। युवक ने अपना पक्ष रखने की हिम्मत बटोरते हुए कहा-

“कैसी डकैती, कैसा तमंचा? मैं तो वहां बस के इंतजार में खड़ा था, साब। और यह जो तमंचे की बात आप कह रहे हैं, वो तो दीवान जी ने जबरदस्ती मेरी जेब में डाल दिया था।”

“चोऽऽप!! फिर कहा कि ‘डाल दिया था?’ अबे यह कहना है कि पहले से मेरी जेब में था और इरादा वही था, जो पहले अभी बताया था-डकैती।”

“लेकिन साब…!”

“लेकिन-वेकिन कुछ नहीं, जो कह दिया, सो कह दिया। एकदम फाइनल।”

“ठीक है साब। सब कुछ लिखवा कर हमसे अंगूठा लगवा लीजिए। कहां लगवाना है?” युवक ने घूमते बैंत के अग्रभाग की ओर एकाग्रता से देखने के असफल प्रयास करते हुए पूछा।

…और इस तरह ‘अपराध उन्मूलन दिवस’ अपनी सफलताओं पर मुस्कुरा कर रह गया।

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