-अतुल मिश्र

“गिल्ली-डंडा और कंचे भी क्या अब ओलंपिक में खेले जाएंगे?” अपने और अपने देश के अतीत से प्यार करने वाले रामभरोसे ने इन भूले-बिसरे खेलों को पुनर्जीवित करने की वकालत करते हुए अपने पड़ोसी से सवाल किया।

“फिलहाल तो नहीं, मगर एक दिन ऐसा जरूर आएगा, जब हमारे इन खेलों की ओर दुनिया का ध्यान जाएगा कि अरे, ये खेल तो हम भूल ही गए।” पड़ोसी ने हां में हां मिलाने की अपनी पुश्तैनी आदत के अनुसार कहा।

“हमारे बाबा के पिताजी दूर-दूर के गांवों में गिल्ली-डंडा खेलने के लिए बुलाए जाते थे।” रामभरोसे ने अपने पारिवारिक गौरव की याद दिलाते हुए कहा।

“अच्छा, यह तो वाकई गौरव की बात है कि आप एक ऐसे खानदान से ताल्लुक रखते हैं, जो गिल्ली-डंडा खेलने में अपनी पताकाएं फहरा चुका है।” पड़ोसी ने न चाहते हुए भी तारीफ के अंदाज में कहा।

“यह तो कुछ •ाी नहीं, हमारे बाबा तो ऐसे थे कि एक बार उन्होंने ने गिल्ली में जो डंडा मारा, तो वह गिल्ली दो मील दूर के गांव में जाकर वहां के प्रधान की खोपड़ी पर लगी।” ऊंचा छोड़ने की परंपरा का कुशलतापूर्वक निर्वाह करते हुए रामभरोसे ने बताया।
“अच्छा, फिर तो झगड़ा हो गया होगा?” पड़ोसी ने जिज्ञासावश पूछा।

“नहीं, वहां का प्रधान समझ गया कि यह गिल्ली हमारे बाबा के गांव से ही आई है। अपना जख्मी सिर लेकर वह सीधा हमारे बाबा के पास आया और बोला कि पंडित जी, भारत-पाक सीमा पर क्यों नहीं खेलते आप इसे। दुश्मन अगर गोलियों से नहीं मरा, तो शर्म से तो मर ही जाएगा कि हाय, हमारे यहां ऐसे गिल्लीबाज क्यों नहीं हुए।” रामभरोसे ने बात को कुछ ज्यादा खींचते हुए बताया।
 “अच्छा, तो आपके बाबा की मृत्यु कैसे हुई?” पड़ोसी ने रामभरोसे के ऊंचा छोड़ने की आदत का मूक समर्थन करते हुए पूछा।

“कुछ नहीं, एक बार गिल्ली में डंडा मारते वक्त गिल्ली तो नीचे गिर गई, मगर डंडा उछल कर आसमान में जा रहे एक हेलिकॉप्टर से जा लगा। हेलिकॉप्टर वहीं क्रैश होकर हमारे बाबा के सिर पर आ गिरा और वे वहीं ढेर हो गए।” गप्प-पुराण का पूर्ण समापन करते हुए रामभरोसे ने सहज से लगने वाले भाव से बताया और नए शिकार की तलाश में आगे निकल लिए।

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