– रश्मि वैभव गर्ग
कुछ बारिशें
बरबस गले लग जातीं,
मानो कुछ कहना चाहती हों…
शायद!
हो कुछ अनकहा,
उनके दिल में भी,
जो कहना चाहती हों…।
छिटक के अपने
महबूब से,
आलिंगन अपना करती हैं…
जैसे कोई शिशु,
अपनी माँ से मिलता है।
कुछ गिले, कुछ शिकवे,
मेघ गुच्छों के,
जब हमसे कहतीं।
सुनकर उनकी व्यथा,
हम भी
चुपके से अपने आंसुओं को
उस बारिश में,
स्वच्छंद बहने देते।
हौले से,
बारिश की बूँदें भी,
छुपे आंसुओं का
स्पर्श पाकर बोलतीं,
रोते नहीं,
हम हैं न बहने के लिए,
तुम क्यूं इन्हें बहाते हो!
ये तो कीमती
मोती हैं…
क्यूँ बारिश में
इन्हें मिलाते हो।
आंसू बोले,
आज हमको
जी भर कर, बहने दो
संग बारिश के,
निर्बाध निकलने दो।