-पल्लवी गर्ग
जब भी मिलती उससे
आँखों में काजल डाल कर मिलती
काली बिंदी माथे बीच सजा कर मिलती
केश कस के चोटी या जूड़े में बाँध कर मिलती।
आदत थी उसकी बालों को खोल देने की
बेतरतीब फैला देने की
उनमें उंगलियाँ फेरने की
घंटों केशों से खेलने की।
जैसे ही मैं बाँधना चाहती उनको
मेरा हाथ थाम लेता
कहता लहराने दो नदी की धारा सा इनको
मत बनाओ लहराती नदिया को पोखर
कहता, लावा हैं ये केश।
दहकने दो
जितना बाँधोगी केश
उतना बाँधोगी खुद को भी
नहीं जी पाओगी खुल कर कभी।
कहते सुनते एक दिन वो खुद बह गया
जीवन की धारा से।
उसके प्रेम में बंधी रह गई
केश खुले रह गए
पंछी सी उड़ान मिली
नदिया सी धार मिली
मन खुलने लगा
अपना आकाश मिलने लगा
कोई लट जो गालों को छूती
उसका स्पर्श साथ लाती।
सब मिलता रहा उसके अलावा
पर अब वो हर शय में मिलता है
मेरी उड़ान में उड़ता है
अपने प्रेमिल स्पर्श से
केश छूता है
दिखे न दिखे
वजूद का हिस्सा बन
मेरे भीतर रहता है।
अब अधिकतर ये केश
खुले रहते हैं
उड़ने के लिए
वो मेरे पंख बन गए हैं
कोई लट जब नागिन सी लहराती है
उसके स्पर्श की स्मृति संग ले आती है
हल्की सी स्मित अधरों पर ठहर जाती है।