आवारा भी और मसीहा भी। इन दिनों किसी भी पुरानी कृति पर बात करते हुए पहली सोच यही होती है कि आज के समय में इस शब्द का क्या मतलब लिया जा सकता है? आज के संदर्भ में अगर हम किसी मसीहा के साथ आवारा शब्द इस्तेमाल करें तो? इसी खौफ से आजादी है आवारा मसीहा। आज के समय का प्रतिनिधि शब्द भय को ही तो बना दिया गया है। ये लिखा तो क्या होगा? ये बोला तो क्या होगा? इतनी उम्र तक इतनी तनख्वाह की नौकरी के साथ बचत नहीं कर ली तो क्या होगा? स्वास्थ्य बीमा नहीं करवाया तो क्या होगा? क्या होगा के •ाय का… जो होगा उसका मुकाबला करेंगे का भावांतर है आवारा मसीहा।
दिशाहारा
यहां की दिशा भागलपुर ले जाती है। भागलपुर से मेरा जैविकता का, गर्भनाल का संदर्भ है। इसमें शरत चंद्र के पिता का परिचय है। इंसान अपनी संतति में अपने रंग-रूप के साथ मिजाज भी हस्तांतरित करता है क्या? अक्सर पिता और संतति के मिजाज को अलग-अलग दिखाते हुए उस संघर्ष का उठान दिखाया जाता है। उनके पिता मोतीलाल यायावर प्रकृति के स्वप्नदर्शी। यायावर पिता का यायावर पुत्र। क्या यायावरी भी एक सांस्कृतिक पूंजी है? आदम जात ने यायावरी में ही सब कुछ खोजा। जब हम स्थिर हुए तो क्या किया? एक स्थिर जगह पर लौटने की मजबूरी में हम पता नहीं कितने हिम्मती रास्तों पर चलने से रुक जाते हैं।
शरत चंद्र के पिता मोतीलाल यायावर प्रकृति के स्वप्नदर्शी। वो कुछ बनाते थे तो अंत की चिंता नहीं करते थे। अंत की चिंता नहीं करना। इसी अंत की चिंता हमें कुछ नया करने से रोकती है। मुझे एक समय में यही प्रेरणा लगी थी कि जो अंत की अनिवार्यता को न स्वीकारे। जीविका के बंधन से निकलने की जिजीविषा। शरत के पिता ने भारत का मानचित्र बनाना इसलिए अधूरा छोड़ दिया, क्योंकि हिमाचल की गरिमा का ठीक-ठीक आकलन नहीं कर सकते थे। यहीं से आता है आवारा मसीहा का डीएनए।
विष्णु प्रभाकर बताते हैं कि शरत के साहित्य की शुरुआत आंसुओं से हुई। वह सोच भी नहीं सकता था कि मनुष्य को दुख पहुंचाने के अलावा भी साहित्य का कोई उद्देश्य हो सकता है? साहित्य की शुरुआत कहीं से भी हो उसका अंत भय की मुक्ति से होना चाहिए। विष्णु प्रभाकर अपने आवारा मसीहा के जरिए भय से मुक्ति का संदेश देते हैं। मैं पत्रकार बिरादरी से आती हूं। हमारी राह की सबसे बड़ी बाधा इसी भय को माना जाता है। जहां से भय शुरू होता है वहां पत्रकारिता खत्म हो जाती है। भय से मुक्ति के प्रतिनिधि प्रतीक आवारा मसीहा के नाम सम्मानित होने का हासिल यही होगा कि आगे भय थोड़ा और कम भयभीत करेगा।
(विष्णु प्रभाकर की स्मृति में एक समारोह में पत्रकार मृणाल वल्लरी का वक्तव्य।)