साहित्य संपादक
नई दिल्ली। क्या कविताओं में संप्रेषणीयता का संकट फिर गहराने लगा है। हालांकि कई महाकवि पहले भी ऐसा लिखते रहे हैं जो अत्यंत क्लिष्ट होता था। आज फिर वही स्थिति है। अब पाठक कम, कवि और लेखक अधिक हो गए हैं। कुछ बहुत अच्छा लिख रहे हैं, मगर आप पाते हैं कि अचानक कई ऐसे कवि कुछ सालों में सामने आ गए हैं जिनका नाम कभी सुना नहीं था। बस लिख रहे हैं और खूब लिख रहे हैं। रोज लिख रहे हैं। कैसे लिख लेते हैं ये? वहीं इनके कथित साहित्य-पोषण के लिए कुछ छोटे-बड़े आलोचक भी मैदान में उतर गए हैं। साहित्य उत्सव से लेकर साहित्य-यात्राओं में भी कवियों और आलोचकों का समूह आनंद उत्सव मनाता है।

ऐसे तमाम कवियों पर हिंदी कथा साहित्य के शलाका पुरुष श्रद्धेय रामदरश मिश्र ने सवाल उठाया है। पिछले दिनों एक राष्ट्रीय दैनिक से साक्षात्कार में साफ कह दिया कि कविताएं दो कौड़ी की हो रही हैं। एक बात जो मैं पिछले कई सालों से कह रहा हूं, वही बात उन्होंने कही कि फेसबुक पर जो कविताएं आ रही हैं, वे फेंकी हुई लगती हैं। मिश्रजी ने सही कहा कि पहले आप कविता और कहानी लिखते थे और अखबारों एवं पत्रिकाओं में भेजते थे तो वहां देखा-परखा जाता था। चयन होता था या वापस भेज दिया जाता था। धीरे-धीरे कोई लेखक छपता था। नाम होता था उसका। अब ऐसा नहीं है।

अब आपके समाने फेसबुक है। रामदरश जी सही कहते हैं कि अब आप खुद लिखें, खुद छापें और अपने कहे को मनवाएं। मैं इससे आगे कहता हूं कि अखबार में एक संपादक भी होता है जो आपकी रचनाएं पढ़ता है। प्रकाशन योग्य लगता हो तो वह छाप देता है। मगर फेसबुक पर तो आप खुद ही लेखक हैं और संपादक भी। रामदरश जी ऐसे स्वयभूं कवियों को लेकर तल्ख हैं तो यह जायज है। उन्होंने कहा है कि फेसबुक और अखबारों से कवि सामने आ रहे हैं जो तालियां बजवाने के लिए वाहियात लिखते रहते हैं। साहित्य मंचों का भी यही हाल है।

अखबार को दिए साक्षात्कार में रामदरशजी ने यह भी कहा, जो मुझे भी सही मालूम पड़ता है कि लोग आजकल ये देखते हैं कि यह किसका आदमी है। हमारा आदमी है या नहीं। पत्रिकाएं और समाचारपत्र भी देखते हैं कि इनको छापना चाहिए कि नहीं। उन्होंने सीधे सीधे यह इशारा कर दिया कि गुटबाजी अगर पहले थी तो आज भी कम नहीं हुई है। मैं कहता हूं कि यह गुटबाजी पहले से कहीं अधिक चरम पर है। कूड़ा-कबाड़ को जिस तरह से प्रोत्साहित किया जाता है वह अब दिख ही रहा है। सामाजिक मंच एक्स हो या फेसबुक, आप किसी के खेमे में नहीं हैं तो आप न लेखक हैं न कवि। चाहे आप खुद पर कितना इतराते रहिए। आपके सामने कल का आया बच्चा लेखक के रूप में स्थापित हो जाता है। यह मेहरबानी कवयित्रियों पर खूब हो रही है। प्रकाशक भी मेहरबान हैं।

इस पंद्रह अगस्त को सौ साल के होने वाले रामदरश मिश्र जी की एक बात याद रखिए कि साहित्यकार को किसी वाद से नहीं जुड़ना चाहिए। हालांकि मौजूदा हालात से वाकिफ मिश्र जी यह कहने के लिए बाध्य हैं कि कोई लेखक किसी वाद से बच कर नहीं रह सकता। अब सवाल यह है कि यह परिस्थिति पहले भी थी तो अब कम क्यों नहीं हुई। सच तो यह है कि स्थिति कहीं अधिक जटिल हो गई है। हर वाद में कोई राजनीतिक प्रतिबद्धता न हो यह मुमकिन नहीं। खेमेबाजी यहां भी है। तटस्थ रहिए तो कोई पूछता नहीं।

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