-संतोषी बघेल
जितना प्रेम लिखा
उतनी ही रिक्त रही मैं,
तुम्हें देकर मेरे पास
आखिर रहता भी क्या?
तीव्र उत्कंठाएं और
मर्मांतक पीड़ा देतीं स्मृतियां,
कुछ मृत स्मृतियों के
स्मारक से सूखे गुलाब,
वर्षों से सहेजी हुई प्रेम की
सल्तनत सी एक चिट्ठी,
जिसने न जाने कितने मौसम समेट लिए,
जिसके पीले पड़ चुके पन्ने में कैद हैं
प्रणय के स्वर्णिम युग की स्मृति!
वे शब्द जिनके अक्षर मिट चुके हैं,
किन्तु एक-एक शब्द को
मैंने सहस्त्रों बार पढ़ा है,
कुछ रटे हुए प्रेमालाप और
साथ होने के नादान मंसूबे संग,
आसमान से भी ऊंची प्यार की पींगे भी!
नजरों से की गईं कुछ मुलाकातें…
वो रास्ते पर ठिठक कर मेरी राह देखना,
वो पास आने पर यूं ही नजरें फेर लेना,
और कभी अनदेखा कर
यूं ही मुझे रुला देना…
इन छोटी-छोटी पगडंडियों से
गुजर कर हम-तुम,
पहुंचे थे प्रेम की
सुखद सपाट सड़क पर,
और लगने लगा था कि
पहुंच जाएंगे मंजिल तक इसी तरह।
मगर जितनी सरलता से
प्रेम हो जाता है,
उतना ही दुरूह होता है
किसी को पा लेना,
यह सच है न।
और तुम्हें पाना केवल मेरा स्वप्न रहा,
तुम कभी यथार्थ बन ही नहीं पाए…
मगर फिर भी तुम्हारी स्मृतियां
मुझे तुम्हारे होने सी ही लगती हैं।
जाने कितने सुखद क्षण हैं
जिनकी अनुभूति मात्र से
मैं खुशी से पुलक उठती हूं
और उनमें कैद है
हमारे प्रेम की वो कहानी,
जो शायद सबको
अपनी सी लग सकती है,
और इसीलिए प्रेम
एक सार्वभौमिक संवेदना है।