– संजय स्वतंत्र

समय किसी के लिए ठहरता नहीं। कौन रोक पाया है इसे। ठीक वैसे ही जैसे लाख कोशिश कीजिए, मुट्ठी से रेत फिसल ही जाती है। अपनी जिम्मेदारियों में उलझे हुए आकाश और डॉ. उज्ज्वला समय की रेत पर निशान छोड़ते गए। और ये स्मृतियों में दर्ज होते गए। दोनों ने अपने सपनों को पलकों की समाधि में सहेज लिया था। आकाश के लिए तो उज्जवला की आंखें नदी में तैरती एक नाव के समान थी, जिसमें वह बैठ कर अकसर दूर निकल जाया करता। उनकी आंखों की ख्वाबगाह में समय ने लंगर डाल दिया था। दस साल का अंतराल कोई कम होता है क्या।    

डॉ. उज्ज्वला ने अरसे बाद फोन किया था। इतने सालों में कितना कुछ बदल गया। पत्नी आठ साल के बेटे को छोड़ कर इटली गई तो फिर कभी लौटी नहीं। न कभी हाल पूछा। इतने बरसों में बेटा स्कूल की पढ़ाई पूरी कर बोस्टन स्थित बर्कले कालेज आफ म्यूजिक चला गया। वहीं  उज्ज्वला ने जयपुर में एक अस्पताल के मालिक से शादी कर ली। शादी असफल रही। वह मरीजों के प्रति जितनी मानवीय थी, पति अजय उतना ही अमनावीय। जहां सिद्धांतों का टकराव हो, वहां मतभेद हो ही जाता है। उज्ज्वला भी बेटी को पालते हुए अपने जीवन मूल्यों के साथ जीती रही। उधर, आकाश अखबार की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर पूर्णकालिक लेखक बन गया था। राजनीति की खबरों से दूर आम आदमी की धड़कन सुनने प्राय: मेट्रो से दिल्ली के किसी भी कोने में निकल जाता।  

सबकी नब्ज पर हाथ रखने वाले आकाश के जीवन में केवल  उज्ज्वला ही तो थी जो उसकी धड़कन को सुन सकती थी। वह महज मित्र भर नहीं थी, मन की साथी भी थी। यह नाता कई जन्मों का था जो इस जन्म में टूट कर भी कोई सिरा जुड़ गया था अनजाने ही। वह कितनी ही दूर रही हो। मगर उसकी खैर-खबर रखती थी। उसके लिखे को गौर से पढ़ती। यह एक ऐसा अनाम रिश्ता था जिसमें वह काजल बन कर उसकी आंखों के नीचे सदा रहता।  उज्ज्वला अकसर खिलखिलाते हुए कहती, तुम दूर कहां हो? पलकों के नीचे हर पल रहते हो।

अरसे बाद  उज्ज्वला ने उसे याद किया है। इधर मेट्रो के लास्ट कोच में उस पर लिखी कोई अधूरी कविता पूरी हो रही है। आकाश को याद है जब  उज्ज्वला ने कहा था कि यार कविताओं में तुम मुझे उतार लेते हो, मगर मैं तुम्हारी सिर्फ कल्पना नहीं। इतने भर का साथ नहीं। यह साथ तो हमेशा का है। इस पर वह कहता, मगर ईश्वर ने हमारी प्रेम कहानी अधूरी ही लिखी है तो इसे कविताओं में पूरा करने दो। यह सुन कर वह हंस पड़ती और कोई गीत गुनगुना उठती। वह उसकी कविताओं की नायिका थी।

बरसों बाद कैसे याद किया उसने। आकाश ने मोबाइल स्क्रीन देखते हुए सोचा। घंटी बज रही है। स्क्रीन पर फ्लैश हो रहा है- डॉ.  उज्ज्वला।  उसने थरथराती ऊंगली से कॉल के हरे निशान को छुआ तो शहद सी मीठी आवाज कानों में घुल गई- आकाश ओ… माई डीयर। कहां हो यार। मैं फोन नहीं कहूंगी तो क्या तुम भी याद न करोगे। क्यों नहीं याद किया। तुम जानते थे न कितनी मुश्किल में थी। उसके सवाल से आकाश अकबका कर रह गया। कुछ कहते नहीं बना। इतना ही कह पाया, तुम व्यस्त थी न बहुत। फिर पति और बच्ची की जिम्मेदारी। इस पर थोड़ी तल्ख होकर उसने कहा…कैसा पति? छोड़ दिया उसे। बहुत ही खराब बर्ताव करता था। पैसे बनाने का मशीन है वह। चाहता था कि मैं भी वही बन जाऊं। तो मैं अलग हो गई।

इतनी बड़ी बात हो गई और मुझे खबर नहीं, आकाश ने सोचा। उसने पूछा, बेटी कितनी बड़ी हो गई।  उज्ज्वला ने बताया, मेडिकल की पढ़ाई करने वह लंदन गई है। रोज फोन करती है। और तुम्हारा बेटा कहां है? … आकाश ने उसके बारे में बताया और कहा कि अब फिर से अकेला हो गया है। गिल्लू बूढ़ा हो गया है, मगर छोड़ कर गया नहीं। वहीं मेरे लिए चाय-नाश्ता बनाता है।  उज्ज्वला यह सुन कर निराशा से भर उठी है। आकाश के लिए उसके मन में फिर से प्रेम छलक पड़ा। सोचा काश वहां होती तो आकाश को गले लगा कर दिलासा देती कि मैं हूं न। मगर ये काश बहुत रुलाता है। इसमें कितने आकाश हैं, पर काश है कि पूरा होता नहीं किसी का।

दस साल के दुख-दर्द बांटते हुए  उज्ज्वला ने कहा, चलो न कहीं घूम आते हैं। मैं बहुत उकता चुकी हूं इस जीवन से। हम दोनों का जी बहल जाएगा। एक दूसरे की थकान हम सोख लेंगे। सुखद स्मृतियों को फिर से साकार करेंगे। तुम अधूरी कविताएं पूरी करना। तुम्हारी आदत है न टुकड़े में लिख कर छोड़ देने की। जाने कितनी कविताएं पूरी होने की प्रतीक्षा में होंगी। … उज्ज्वला थमने का नाम नहीं ले रही। आकाश उसकी बातें सुनता रहा। तभी कोच में उद्घोषणा हुई, अगला स्टेशन राजीव चौक है। दरवाजे दांयीं ओर खुलेंगे। आकाश ने कहा, सुनो मेरा स्टेशन आ रहा है। मैं रात में बताता हूं कि हम दोनों कहां चलेंगे। इस पर  उज्ज्वला ने बेसब्री से कहा, तुम्हारे फोन का इंतजार करूंगी।  

…नोएडा में मीटिंग खत्म होते-होते शाम हो चुकी थी। लौटते समय मेट्रो में आकाश की आंखों के आगे उज्ज्वला का सांवला-सलोना चेहरा आता रहा। कजरारी आंखें और भरे-भरे होंठ। जिस पर हरदम मुस्कुराहट और कोई न कोई शरारत। आकाश उसे जंगली बिल्ली कह कर अक्सर चिढ़ाता। इस पर वह जोर से हंसती। और उसे गुदगुदा कर छेड़ती। क्या ही वो दिन थे। आज आकाश सुध खो बैठा था। मेट्रो के लास्ट कोच में सफर करते हुए मालूम ही नहीं हुआ कि कितने स्टेशन निकल गए। तेज उद्घोषणा ने ही उसका ध्यान खींचा, अगला स्टेशन माडल टाउन है। दरवाजे बांयीं ओर खुलेंगे। वह सीट से उठ गया। मेट्रो की सीढ़ियां उतरते हुए गुलाबी टॉवेल में लिपटी उज्ज्वला से अंतिम मुलाकात याद आई। उस रात की कहानी याद करते ही उसकी नसों में बिजली दौड़ गई, अब भी ऐसा लग रहा कि वह उसके कंधे पर हाथे धरे चल रही है। वह कहीं गई ही नहीं। मैं ही उसे भूल गया था।

सावन की महीना। रात भर झमाझम बारिश होती रही। अरसे बाद आकाश और उज्ज्वला बातें करते रहे। रिमझिम आंखों में सुखद स्मृतियां फिर से बह चलीं। देर तक सोचते रहे कि दोनों किस शहर में मिलें। अंखियां सावन-भादो हुई जा रही हैं। उज्ज्वला का इसरार है कि इस सावन में मिलना ही है। कुछ सोच कर बोली, आप टिकट कटा लीजिए बनारस का। बनारस की गलियों में घूमेंगे। बचपन को फिर से जियेंगे।  उज्ज्वला चंचल बच्ची हो गई थी। वह फिर से प्रेम को जीने लगी है। प्रेम में डूबी स्त्री नदी बन जाती है। जब वह आवेग में होती है तो दुनिया का कोई पुरुष उसे संभाल नहीं सकता। वह अपने साथी को आंचल से बांध कर दुनिया की सैर पर निकल जाना चाहती है। जहां उन दोनोेंं के सिवाय तीसरा कोई न हो। तभी तो मैं और तुम हम हो जाते हैं।

आने जाने के टिकट कट चुके हैं। यात्रा से पहले दोनों की नींद उड़ चुकी है। अपनी कल्पनाओं को साकार करने का मन बना चुकी है  उज्ज्वला। इसके लिए सावन का ही समय चुना उसने। उसे वसंत से अधिक सावन अच्छा लगता। इतने संघर्षों को पार करने के बाद लग रहा है कि अजय नहीं, आकाश ही उसका जन्म-जन्मांतर का साथी था, यह ख्याल आया भी तो कितनी देर से।  इस सावन में अब फिर से सुहागन बन जाना चाहती है। क्या उसकी मनोकामना पूरी होगी?

जयपुर से वाराणसी की उड़ान में उज्ज्वला सोचती रही कि उसकी मनोकामना क्यों नहीं पूरी होगी। सावन के इसी महीने में मां पार्वती ने घोर तप कर अपने आराध्य को प्राप्त किया था। तब क्या मुझे मेरा आराध्य नहीं मिलेगा। वह भी तब जबकि हम दोनों को एक दूसरे की बहुत जरूरत है। आकाश से कहूंगी कि इस बार मुझे मेरी कलाइयों में हरी चूड़ियां पहना दे। इस बार उसे खाली हाथ न जाने दूंगी। दिल की बातें सोचते हुए कब झपकी लग गई, पता ही नहीं चला। जयपुर से वाराणसी का डेढ़ घंटे का हवाई सफर सपने देखने में गुजर गया। विमान परिचारिका ने झकझोर कर जगाया, मैडम, आप वाराणसी पहुंच चुकी हैं।

…लाल बहादुर शास्त्री हवाई अड्डा। टर्मिनल से बाहर निकलते ही सामने आकाश दिख गया। वह हैंडबैग पकड़े उमगते हुए, बल खाते हुए उसी तरह दौड़ पड़ी जैसे नदी आपने सागर में मिलने को आतुर हो। उसे देख कर आकाश ने हाथ मिलाने के बजाय पहली बार दोनों बांहें पसार दीं। देखते ही देखते उज्ज्वला उसमें समा गई। वह सभी बंधनों को तोड़ कर एक नए आकाश में अपने लिए इंद्रधनुष बना रही थी। इस तरह कोई देखलेगा तो क्या कहेगा, आज इसकी कोई परवाह नहीं थी।

दोनो कैब में बैठे। उज्ज्वला ने सहसा ही आकाश की हथेली को अपनी नरम हथेली में भर लिया। दोनों खामोश रहे। दोनों की हथेलियां संवाद करती रहीं। उसके गर्म स्पर्श से आकाश की धमनियों में बिजलियां दौड़ने लगीं। … कुछ ही देर में वे एक पांचसितारा होटल के सामने थे। आकाश ने ही कहा था कि वह फाइव स्टार होटल में दो दिन रहना चाहता है। क्योंकि कभी रहा नहीं। जीवन भर तो सबके लिए जिये, अब बचा समय खुद के लिए क्यों न जी लें। उज्ज्वला भी यही चाहती थी कि आकाश अब उदासियों के जंगल से बाहर निकले। उसके साथ उम्मीदों के फूल खिलाए। क्या इसका वक्त अब आ गया है?

आकाश पहली बार किसी फाइवस्टार में था। कुछ औपचारिकताएं पूरी करने के बाद स्वागत कक्ष से उन्हें जिस कमरे की चाबी मिली, वह सातवीं मंजिल पर थी। लिफ्ट से जब वहां पहुंचे तो सबसे कोने के इस कमरे की साज-सज्जा ने उनका मन मोह लिया। दरवाजे बंद कर आकाश कुर्सी पर बैठ गया और टेबल पर कागज पेन रख कर दोनों हाथ बांधते हुए थोड़ी देर के लिए सिर झुका लिया।  उज्ज्वला वॉशरूम चली गई। कुछ देर बाद लौटी तो आकाश को यूं इस हाल में देख कर उस पर बेइंतहा प्यार उमड़ पड़ा। थोड़ी नजदीक गई तो देखा कि कागज पर कुछ लिख कर वहीं सो गया है। वह पढ़ने लगी-

दुनिया के सारे कवि
एक दिन मर जाएंगे,
मगर उनकी कविताओं में
बची रहेगी हरी-भरी धरती
और लबालब कई नदियां,
बची रहेंगी नायिकाओं की
प्रतीक्षारत आंखें और उनमें पानी,
बचे रहेंगे मासूम बच्चे और
बचा रहेगा इंसाफ
मनुष्यता के लिए।

…क्या-क्या लिख देता है आकाश। उन अक्षरों पर उंगलियां फेरते हुए वह आकाश के कंधे पर झूल गई और अपने गीले बालों से उसके चेहरे को ढक दिया। एक तरफ शीतलता और दूसरी तरफ उसकी सांसों की गर्मी का अहसास होते ही आकाश की आंखें खुल गई।  उज्ज्वला ने उसे अपनी बांहों में लेते हुए कहा, जरा ठहरो। यह पल जी लेने दो। उसने आकाश के गालों से अपने गाल सटा दिए। आकाश की धमनियों में एक बार फिर रक्त का संचार बढ़ गया है। उसे सनसनाहट महसूस हो रही है। दोनों उसी अवस्था देर तक रहे। फिर आकाश ने ही टोका, इस कदर मुझ पर झुकी रहोगी तो देखो बारिश हो जाएगी। नदी यहीं बहने लगेगी। हम दोनों यहीं डूब जाएंगे।

यह सुन कर उज्जवला खिलखिला कर बोली, तो डूब जाने दो। तब आकाश ने कुर्सी से उठते हुए कहा, चलो घूमते हैं आज बनारस की गलियां।  उज्ज्वला उसे अपलक देखती रही। दिल हुआ कि उसे चूम ले। यूं उसे खामोश देख आकाश ने मुस्कुराते हुए कहा, मुझे नहाना भी है। चलना नहीं है घूमने? ओह हां,  उज्ज्वला अपने ख्यालों से लौटी। …वॉशरूम में आकाश नहाते हुए कोई गीत गुनगुना रहा था-अजहु ना आए बालमा, सावन बीता जाए… नींद भी अंखियन द्वार न आए, तोसे मिलन की आस भी जाए…।  उधर, सातवीं मंजिल के विंडो से  उज्ज्वला दूर गंगा की लहरों पर फिसलती नावों को देख रही है। उसे लग रहा है कि मन की नदी में भी उम्मीदों की नौका इसी तरह तैरती रहती है जो कभी मंजिल पर पहुंचती नहीं। मन की लहरों में डूबती-उतराती  उज्ज्वला को कुछ देर बाद आकाश ने ही झकझोरा, अरे तुम तैयार नहीं हुई? और फिर सहसा ही उसके ललाट पर अपन चुंबन अंकित कर दिया। उज्ज्वला ने उसे गले लगाते हुए कहा, चलो चलते हैं।

… होटल से निकल कर दोनों बनारस की गलियों में गुम हो गए।  उज्ज्वला गली-गली भटकते हुए बच्चों की तरह फरमाइश करती रही। कभी गोलगप्पे खाती तो कभी चाट। तो कभी मोतीचूर के लड्Þू। कचौड़ी गली में तो आकाश की भूख भी जाग गई। बड़ी-बड़ी कड़ाहियों में छनती खस्ता कचौरियां। उनकी खुशबू ने इतना बेकरार किया कि  उज्ज्वला भी जिद करने लगी, मैं भी खाऊंगी। शरीर को ऊर्जा मिलते ही वे विंध्यवासिनी गली पहुंचे, जहां दोनों ने मां की प्रतिमा के आगे सिर नवाया। इसके बाद भूतही इमली की गली, नारियल गली से लेकर काल भैरव गली और गोपाल मंदिर गली घूमते हुए विश्वनाथ गली पहुंचे जहां,  उज्ज्वला देर तक बनारसी साड़ियां देखती रही। उसने एक पसंद कर आकाश से देखने को कहा। वह गुलाबी रंग की थी जिसमें रेशम और चांदी की कढ़ाई की गई थी। ओह, कितनी सुंदर है। पहनोगी तुम? आकाश ने पूछा। उज्ज्वला ने मुस्कुराते हुए पलकें झपका दीं। उसका चेहरा गुलाबी हो उठा है। आकाश ने पहली बार कोई साड़ी खरीदी थी।

छोटी-मोटी खरीदारी के बाद  उज्ज्वला ने एक दुकान पर हरी चूड़िया पहनीं और आकाश की पसंद के दो झुमके भी खरीदे। इसके बाद दोनों अस्सी घाट पहुंचे। गंगा आरती में अभी बहुत वक्त था तो आकाश ने कहा, चलो मणिकर्णिका घाट चलते हैं। वहां वे एक साथ जलते शवों को देखने लगे।  उज्ज्वला के कंधे पर हाथ रखते हुए उसने कहा, तुम इसे जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्ति के रूप में देखो। हमें एक दिन मोह-माया से मुक्त होना है। देखो यहां देह किस तरह मुक्ति का पर्व मना रही है। आत्मा पहले ही मोह से मुक्त हो चुकी है। आकाश दार्शनिक हो गया था, मगर उज्ज्वला तो आकाश के मोह में है। वह तो अब अपने मन का संसार आकाश में रच रही है। सो अभी मुक्ति नहीं।

गंगा में नौका विहार कर होटल लौटे तो दोनों थक चुके थे। उमस से  उज्ज्वला भीग चुकी है। वह नहाने चली गई। आकाश ने अपने कपड़े बदले और अपनी एक फाइल निकाल कर लिखने बैठ गया। उधर, वॉशरूम में नहाते समय उज्ज्वला समय सोचने लगी, आज आकाश को सरप्राइज दूंगी। … जब बाहर आई तो बनारसी साड़ी में वह दुलहन लग रही थी। उसने अपने होठों पर हल्का लिपस्टिक लगा लिया था। खुले बालों ने उसके सौंदर्य को ऐसे प्रस्तुत किया मानो घने काले बादलों से बिजली गिर रही हो। आकाश उसे देख कर मुग्ध हो गया। उसने कहा, यूं ही खड़ी रहो। मैं तुम पर एक कविता रच दूं। यह सुन कर उज्जवला ने हंसते हुए कहा-कविता! कैसी कविता! आकाश मैं तो तुम्हारी कविताओं की जीवित नायिका हूं। अभी तो कविता लिखना छोड़ो। शायरी-कविता मूड की चीजें हैं। हम केवल इतने भर के मित्र नहीं। इधर आओ न। दो साथी एकदम पास थे, एक दूसरे की धड़कन सुनते हुए। उनके बीच तीसरा कोई नहीं था…।

आकाश और  उज्ज्वला आज की रात प्रेम का पर्व मना रहे हैं। उज्ज्वला बिस्तर के बीचों-बीच बैठ गई। आकाश बेड के एकदम पास कुर्सी खींच कर बैठ गया। दोनों पुराने गीत-संगीत सुनते रहे। खूब बातें करते रहें। उज्जवला ने कई बार टोका, सोओगे नहीं क्या। आकाश ने कहा, तुम थक गई हो। लेट जाओ। उसने  उज्ज्वला के सिर सहलाते हुए कहा, बहुत सोचती हो। थोड़ा विराम दो। … और कुछ ही देर में उसे नींद आ गई। वह दिन भर की थकी हुई है।

सुबह पांच बजे उज्जवला की नींद खुल गई। उसने देखा आकाश कुर्सी पर ही सो गया है। उसकी आंखों से गंगा बह चली। …क्या इस तरह प्रेम का पर्व मनाने आए थे तुम? मेरे संग सो नहीं सकते थे? क्या यह अनैतिक हो जाता? क्या मैं अपवित्र हो जाती?  सारी रात तुम कुर्सी पर कैसे सोते रहे। … वह देर तक आकाश में उस पुरुष को निहारती रही जो सच में उसका आराध्य था। अब वह प्रेम का देवता है। आत्मसम्मान और विश्वास ही रिश्ते की बुनियाद है। तुम ने बंद कमरे में भी बनाए रखा तो क्या सोच कर। मणिकर्णिका में शिवजी ने मां पार्वती का मणिकर्ण (कुंडल) ढूंढा था। तुम काशी आकर मेरे आत्मसम्मान को ढूंढ रहे थे। मैं अपने आराध्य पर विश्वास करती हूं। मैं आज अपना सर्वस्व अर्पित करती हूं आकाश। उठो ना। वरना पानी डाल कर जगा दूंगी।  

 उज्ज्वला आकाश के पैरों पर सिर रख कर फफक पड़ी। तभी आकाश की नींद खुल गई। …अरे यह क्या। तुम यहां क्यों बैठी हो। क्या हो गया तुम को। क्या कर रही हो ये?  उज्ज्वला ने सिर उठा कर उसे नजर भर देखा और कहा, और जो तुमने किया? जीवन का मुक्ति पर्व मना रहे हो यहां? वह मानिनी नायिका बन गई है। आकाश ने उसे फर्श से उठाया और गले लगा कर कहा, शांत हो जाओ। मन से मन का रिश्ता कम है क्या। अच्छा चलो हम तैयार होते हैं। आज विश्वनाथ मंदिर चलेंगे। यह कहते हुए वह नहाने चला गया। उधर, खिड़की के उस पार गंगा की लहरों को फिर से  उज्ज्वला देखने लगी है। उसकी आंखें नौका बन कर नदी में उतर चुकी हैं। आज उसे आकाश के साथ बहुत दूर जाना है।  बहुत दूर…।  

आकाश वॉशरूम से बाहर आया तो उज्जवला उसका हाथ पकड़ कर खिड़की के पास ले आई और बोली, देखो मां गंगा को। उन्मुक्त होकर वह बह रही हैं। तुम मुझे भी उलझनों से मुक्त करो। उसने सिरहाने टेबल पर रखी बिंदी उठा कर आकाश को देते हुए कहा, इसे मेरे ललाट पर सजा दो आकाश्। जल्दी करो। मेरे जीवन की सुबह हो गई है। यह बिंदी नहीं, मेरे और तुम्हारे लिए सुबह का उगता सूरज है। इसके उगने का समय आ गया। आकाश ने एक संकोच, मगर एक विश्वास के साथ उज्जवला के माथे पर बिंदी सजा दी है। उसका चेहरा आत्मसम्मान से दीप्त हो चुका है। उधर, गंगा का आंचल सूर्य की रश्मियों से धीरे-धीरे लाल हो रहा है।  

* पत्रकार और कवि संजय स्वतंत्र चर्चित ‘द लास्ट कोच’ शृंखला के लेखक हैं।

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