साहित्य डेस्क
नई दिल्ली। भारतीय पत्रकारिता का जब नया इतिहास लिखा जाएगा तब उसमें प्रिंट से अधिक दृश्य मीडिया का अध्याय कहीं बड़ा होगा। यह अध्याय बताएगा कि किस तरह एक दौर विशेष में समाचार वाचक यानी टीवी एंकर्स ‘फैंकर्स’ बन गए। पत्रकार का पहला काम समाचार प्रस्तुत करना है। लिखना है या बोलना है। उसमें न तो उसे विचारों का घालमेल करना चाहिए और न ही किसी पक्ष में खड़ा होना चाहिए। लेकिन देश के नागरिकों ने देखा कि कुछ अपवादों को छोड़ कर ज्यादातर मीडिया समूहों का किस तरह सरकारीकरण हो गया।
मीडिया समूहों का सरकार के दबाव या प्रभाव में होना कोई नई बात नहीं है। उनके अपने हित होते हैं। दबे-छुपे पेड न्यूज का भी दौर हम सभी ने देखा है। करोड़ों की आबादी वाले देश में समाचार चैनल खबरें छोड़ कर धीरे-धीरे विचार परोसने लगेंगे, इसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। एंकर्स तब ‘फैंकर्स’ बन गए, जब वे सत्ता पक्ष के बजाए विपक्ष से ही सवाल करने लगे। फिर बड़ी चतुराई से सरकारी आख्यान भी गढ़ने लगे। लेखक-संपादक मुकेश भारद्वाज की पिछले दिनों आई किताब ‘द फैंकर्स स्टोरी’ टेलीविजन एंकर्स के बदलते चेहरे को ही सामने नहीं रखती बल्कि उनके पत्रकारीय चरित्र का पोस्टमॉर्टम भी करती है।
भारतीय पत्रकारिता में ‘फैंकर्स’ नया शब्द है। लेखक ने इसे ‘फैन’ और ‘एंकर’ का मिश्रित रूप बताते हुए लिखा है कि एक एंकर की वास्तव में भूमिका क्या है, वहीं प्रशंसक का दिल दिमाग पर हावी होता है। वह अपने आराध्य व्यक्ति के लिए ही बोलता और सुनता है उसकी अनवरत प्रशंसा करता है। मगर जब एंकर ही ‘फैन’ (प्रशंसक) में बदल जाए तो उसे क्या कहेंगे? ‘फैंकर्स’ ही कहेंगे। यह दुर्भाग्य है कि जो पत्रकार टीवी पत्रकारिता का विश्वसनीय चेहरा थे, वे राजनीतिक दलों के मुखौटे बन गए।
आप जरा दो दशक पीछे मुड़ कर देखें या फिर दूरदर्शन के दौर में चले जाएं, आप पाएंगे कि टीवी पर या रेडियो पर समाचार पढ़ने वालों पर कितना भरोसा था। पान की गुमटी से लेकर खेतों की पगडंडियों पर रेडियो सुनते लोग या चौपाल पर या अपने घरों में टीवी पर लोग बहुत ध्यान से समाचार सुनते। तब सिर्फ खबर ही होती थी। और कुछ नहीं। अब खबरों के बीच दिन-रात अनर्गल विचारों का दंगल है। यह भी एक दौर है।
एंकर्स चिल्लाता है। अपनी सुविधा से नैरेटिव गढ़ता है। सरकार के लिए पर्दे के सामने बेशर्मी से जनमत बनाता है। वह जब चाहे रिपोर्टर बन जाता है। विश्लेषण भी करता है। समाचार प्रस्तुत करता है। फिर सभी दलों के प्रवक्ताओं को बैठा कर ‘मुर्गों की लड़ाई’ सरीखा खेल खेलता है। वह देश की भावनाओं को लहूलुहान करता है। यह संकट मुख्यधारा के मीडिया में दिखता है, लेकिन यह अच्छी बात है कि छोटे अखबार और वेबसाइट अपना दायित्व बखूबी निभा रहे हैं। लेखक का कहना है कि बीते दस सालों में सत्ता के गलियारे में एंकर मशरूम की तरह उग आए। उनको पर्याप्त खाद-पानी मिला। इस तरह एंकर प्रतिदिन राजनीतिक खुराक के पोषक बन गए।
मुकेश भारद्वाज लिखते हैं कि कभी प्रेस जनता की आवाज हुआ करते थे। वे निष्पक्ष और विश्वसनीय होते थे। न्यूजरूम और संपादक के साथ बैठक में पत्रकार अपने राजनीतिक विचार बाहर रख कर आते थे। यह स्थिति तब भी जबकि कई नेता उनके मित्र होते थे। मगर वे खबरों के साथ खेल नहीं करते थे। पत्रकारों और नेताओं में मतभिन्नता के बावजूद एक दूसरे शत्रु नहीं थे। न उनके बीच कभी कोई युद्ध की रेखा खींची गई। मगर 2014 के बाद तस्वीर बदल गई। विचारों से असहमत पत्रकारों को खान मार्केट गैंग और लुटियन मीडिया और ‘प्रेस्टीट्यूट’ तक कहा गया। यह पत्रकारिता और पत्रकारों का ऐसा घोर पतन था, जिसे कभी नहीं देखा गया था।
‘द फैंकर्स स्टोरी’ में सत्रह अध्याय हैं। इसमें भारतीय टीवी समाचार पत्रकारिता के उदय और उदारीकरण के बाद सरकारी टीवी से मुक्त नए समाचार चैनलों का विस्तृत वर्णन किया है। वहीं टीवी एंकरों की राजनीतिक निष्ठा और उनके काम करने के तौर-तरीके पर भी सवाल उठाए हैं। टीवी एंकरों का हाल यह रहा कि सोशल मीडिया में उन पर एक चुटकला भी वायरल हुआ। इसमें कहा जाता था कि उत्तरी कोरिया का तानाशाह शासक किम योंग उन अपनी भावी रणनीति के लिए भारतीय चैनलों की खबरें देखता है।
यही नहीं टीवी चैनलों की किस तरह भाषा बदली, इसे लेखक ने बखूबी रखांकित किया है। कुछ जबर्दस्ती के शब्द गढ़े गए। यथा-‘महा खुलासा’, ‘बड़ा खुलासा’ और कभी-कभी ‘सबसे बड़ा खुलासा’। एक ‘शब्द ग्रउंड’ जीरो भी आया। क्या अस्सी और नब्बे के दशक के पत्रकार घटनास्थल पर नहीं जाते थे? कुल जमा ये कि टीवी चैनलों ने समाचार प्रस्तुति को पूरी तरह नाटकीय बना दिया। खबरों को लेकर इतना भ्रम कभी न था। आज शेरलॉक होम्स होते तो वे भी टीवी खबरें देख कर गच्चा खा जाते।
कोई दो राय नहीं कि आज समाचार चैनल सत्ता के प्रशंसकों द्वारा सत्ता के प्रशंसकों के लिए चलाए जा रहे हैं। इसलिए एंकर्स अब ‘फैंकर्स’ हैं। नए और पुराने पत्रकारों को मुकेश भारद्वाज की यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए। यात्रा बुक्स से प्रकाशित इस किताब का मूल्य 350 है।